…और संत का धैर्य देखकर वह लज्जित हो गया
उत्तर भारत में जो स्थान संत कबीर का है दक्षिण में वही स्थान संत तिरुवल्लुवर का है। वह भी कबीर की तरह ही कपड़ा बुनते और कर्मकांड व पाखंडों का विरोध करते थे। एक बार उन्होंने एक साड़ी बुनी और उसे बेचने के लिए बाजार में जा बैठे। एक व्यक्ति आया और तिरुवल्लुवर से साड़ी का दाम पूछा। संत ने साड़ी का दाम दो रुपए बताया। साड़ी खरीदने आए उस व्यक्ति ने साड़ी के दो टुकड़े कर दिए और संत से पूछा कि अब इन टुकड़े के दाम कितने हुए। संत तिरुवल्लुवर ने कहा कि एक-एक रुपया। अब उस व्यक्ति ने उन दोनों टुकड़ों के दो-दो टुकड़े कर दिए और पूछा कि अब ये टुकड़े कितने के हैं। संत तिरुवल्लुवर ने बिना अधीर होते हुए कहा कि आठ-आठ आने के। इसके बाद उस व्यक्ति ने उन चारों टुकड़ों के दो-दो टुकड़े कर दिए और फिर वही प्रश्न पूछा। संत तिरुवल्लुवर ने कहा कि चार-चार आने के। इस तरह से वह व्यक्ति तिरुवल्लुवर की बुनी साड़ी के टुकड़े पर टुकड़े करता गया और दाम पूछता गया।
संत तिरुवल्लुवर बिना नाराज हुए दाम बताते रहे। जब साड़ी तार-तार हो गई तो उस व्यक्ति ने कहा कि अब तो इसकी कोई कीमत ही नहीं रह गई, फिर भी मैं तुम्हें दो रुपये दे देता हूं। संत तिरुवल्लुवर ने कहा कि जब तुमने साड़ी ली ही नहीं तो कीमत किस बात की ?
असीम धैर्य देखकर वह अत्यंत लज्जित हुआ और क्षमा मांगने लगा। संत शांत भाव से बोले, तुम मेरे अपराधी नहीं हो, इसलिए क्षमा करने का अधिकार भी मेरा नहीं है। इस साड़ी में कइयों की मेहनत थी जिसे तुमने तार-तार कर बेकार कर दिया। वे यहां हैं नहीं और तुम उन सबके पास तक पहुंच नहीं सकते माफी मांगने। इसलिए प्रायश्चित करना चाहते हो तो अपने मन से कोई ऐसा काम करो जिसमें बहुत सारे अनजान लोगों का हित हो।’
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