रविवार, 9 अप्रैल 2017

रोमियो तो विदेशी था, कृष्ण हमारे हैं, यही फर्क है जनाब!


मुद्दा महिलाओं की सुरक्षा का है, मगर हमारे निशाने पर प्रेम आ गया है। सड़क चलते जो मनचले लड़कियों, युवतियों को छेड़ते या उन पर फिकरे कसते हैं वे भी उन लड़कियों, युवतियों से प्रेम करने का दावा नहीं करते। उनमें से अधिकतर से तो वे जिंदगी में कभी दोबारा मिलते भी नहीं। ज्यादातर मामलों में इन मनचलों की अपनी अलग कोई प्रेमिका होती है या कोई ऐसी लड़की जिस पर ये मन ही मन में मर रहे होते हैं।
अगर उस लड़की से कहीं कोई छेड़खानी हुई तो यही मरने-मारने पर उतारू हो सकते हैं। पर जहां तक फिकरेबाजी का सवाल है तो ज्यादातर मनचलों के लिए यह टाइमपास के अलावा कुछ नहीं होता।
ऐसे में इन्हें मजनू या रोमियो जैसा नाम देना ही अपने आप में एक पूर्वाग्रह का परिणाम है। ऐसा नाम देने वाले प्रायः अभिभावकों की श्रेणी में आने वाले वे लोग होते हैं जिनके मुताबिक किसी से प्रेम करना वक्त की बर्बादी है और जो अमूमन इस आशंका से ग्रस्त रहते हैं कि उनकी बेटी या बेटा इस पचड़े में न पड़ जाए।

सचमुच गौर करने की बात है कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी कैसे समाज के इस तबके की सोच और पूर्वाग्रह को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेते हैं। शायद इसके पीछे यह तथ्य काम कर रहा होता है कि ये सब भी कहीं न कहीं अभिभावक होते हैं और उन्हीं असुरक्षाओं से ग्रस्त होते हैं जिनसे ये अभिभावक गुजर रहे होते हैं। दूसरी बात यह कि पुलिस, प्रशासन, सरकार आदि प्रकृति से यथास्थितिवादी होती हैं। अभिभावक भी सामाजिक और पारिवारिक यथास्थितिवाद के वाहक होते हैं। ऐसे में प्रेम जैसी भावनाओं के वशीभूत युवा सहज ही सामाजिक और पारिवारिक समीकरण के लिए चुनौती बन जाते हैं।
इन सबमें एक और अहम पक्ष है संघ परिवार की पुरुषसत्तात्मक सोच का। यह सोच महिलाओं को इस लायक नहीं मानती कि वह अपने जीवन का फैसला खुद कर सकें। इसके मुताबिक बहू-बेटियां परिवार की इज्जत होती हैं जिसकी रक्षा का दायित्व परिवार के पुरुष सदस्यों पर होता है। लिहाजा यह मानती है कि बेटी की शादी परिवार की मर्जी से ही तय होनी चाहिए। अगर कोई लड़की परिवार की मर्जी के खिलाफ खुद अपना जीवन साथी चुनती है तो यह उस परिवार के लिए शर्म की बात होती है। इससे जाति, गोत्र, समुदाय और धर्म की मेहनत से खड़ी की गईं दीवारें भरभरा कर गिर जाने का खतरा रहता है। इसीलिए समाज में ऐसा माहौल नहीं होना चाहिए कि लड़के-लड़कियां आपस में सहजतापूर्वक मिलें, दोस्ती करें, प्रेम करें।

तो ये तीनों कारक एक-दूसरे से मिले और उत्तर प्रदेश पुलिस ने महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर प्रेम को निशाने पर ले लिया। बाकायदा एक दस्ता सक्रिय हो गया जिसका नाम रखा गया ऐंटी रोमियो स्क्वॉड। कोई इन भलेमानुसों से पूछे कि भाई रोमियो ने जिंदगी में किस युवती या लड़की को छेड़ा था, किसके साथ जोर-जबर्दस्ती की थी। प्रेम के सर्वोच्च मूल्यों का प्रतीक ये पात्र जो दुनियाभर में सदियों से सबको प्रेरित करता रहा है, यूपी में आधिकारिक तौर पर महिलाओं को छेड़ने वाला एक छिछोरा किरदार बना दिया गया है और किसी को इसका रंच मात्र अफसोस नहीं है। कोई दुविधा, कोई पुनर्विचार इस पर कहीं नहीं दिखता कि इस ऐंटी रोमियो दस्ते का नाम बदला जाए।
पर मजाक में दिया गया एक सुझाव भारतीय संस्कृति के लिए इतना बड़ा खतरा बन गया है कि कार्रवाई की मांग को लेकर तूफान खड़ा किया जा रहा है। जाने-माने वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण ने कह दिया कि अगर नाम ही रखना था तो क्यों न इस दस्ते को ऐंटी कृष्ण दस्ता कहा जाए।
मौजूदा नाम के बेतुकेपन को उजागर करने के लिए दिए गए इस सुझाव पर हंगामा खड़ा हो गया है। क्यों भला? इसलिए कि कृष्ण हमारे हैं। उनसे हमारी भावनाएं जुड़ी हुई हैं। भले, गोपियों से कपड़े चुराने से लेकर, उन्हें छेड़ने की तमाम कथाएं हम सैकड़ों बार सुन चुके हों, उनसे किसी की भावना आहत नहीं होती, लेकिन ऐंटी रोमियो दस्ते का नाम उनके नाम पर रखने की बात से भी हमारा खून खौलने लगता है। और रोमियो का पूरा चरित्र ही बदल डालना हमारे चेहरों पर शिकन भी नहीं लाता। क्योंकि वह हमारा नहीं है। हैं ना हम कमाल के!

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