मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

नक्सल समस्या का निदान जरूरी

छत्तीसगढ. के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में माओवादियों ने िंचतागुफा इलाके में सी. आर. पी. एफ. जवानों पर हमला किया है जिसमें 26 जवान शहीद हो गए हैं और 6 जवान लापता हैं। इस घटना से एक बार फिर से छत्तीसगढ. में नक्सलियों की सक्रियता बढ.ने की आशंका बढ. गई। वहीं घटना से नक्सल समस्या के स्थायी हल की भी जरूरत महसूस हुई है। वैसे छत्तीसगढ. में नक्सल समस्या काफी जटिल बनी हुई है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ. के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में माओवादियों ने दो महीने में दूसरी बड.ी वारदात को अंजाम दिया है। पिछले महीने 11 मार्च को नक्सलियों ने सीआरपीएफ की 219वीं बटालियन को निशाना बनाया था जिसमें 12 जवान शहीद हो गए थे। ऐसे में अब जरूरी हो गया है कि छत्तीसगढ. में नक्सल समस्या का स्थायी हल निकाला जाए। सोमवार की घटना ने एक बार फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है कि ऐसी कौन सी वजह हैं कि नक्सल समस्या दिन प्रतिदिन विकट होती जा रही है? दरअसल नक्सल समस्या का हल नहीं निकलने के पीछे दो वजहें दिखती हैं। एक तो यह कि राजनीतिक दलों में इस बात पर सहमति नहीं है कि ये समस्या सामाजिक, आर्थिक समस्या है या कानून व्यवस्था से जुड.ी समस्या है। इस सवाल पर राजनीतिक पार्टियों के बीच विवाद है। पार्टियों के भीतर जरूरी है कि इस पर एक न्यूनतम सहमति बने। ऐसा होने से कम से कम आदिवासियों को राहत मिलेगी जो हर हाल में पिस रहे हैं। दूसरा सवाल इसके अर्थशास्त्र का है। नक्सल प्रभावित हर जिले को केंद्र और राज्य सरकार इतना पैसा देती है कि अगर उसे पूरी तरह खर्च किया जाए तो जिलों की तस्वीर बदल जाए ,लेकिन आश्चर्य है कि इतने पैसों के बावजूद बस्तर की बहुसंख्य आबादी बिना बिजली और शौचालय के हैं। अस्पताल जाने के लिए लोगों को मिलों दूर तक चल कर जाना पड.ता है और लोग दवाओं के लिए नक्सलियों पर अभी-भी निर्भर हैं।

कहां क्या खर्च हो रहा है? इसका कोई हिसाब नहीं, क्योंकि जहां पैसे कथित तौर पर खर्च हो रहे हैं वहां तो पुलिस भी नहीं जा पाती। जाहिर है कि ये पैसा नेता,अफ.सर और ठेकेदारों की तिकड.ी बांट कर खा रही है। इस पैसे में से एक बड.ा हिस्सा नक्सलियों को जाता है। हर अफ.सर उनको रंगदारी टैक्स की तरह देता है। यहां तक पुलिस के लोग भी उन्हें गोलियां आदि देते हैं। व्यापारियों से नक्सली भी पैसा वसूलते हैं और अफसर भी। ऐसे में जाहिर है इस अर्थशास्त्र का तोड. निकले और जवाबदेही तय हो तो शायद कोई रास्ता निकले। पैसा सही जगह खर्च हो और संतुलित और समान विकास हो, जिसके अभाव में नक्सलवाद को तेजी से पनपने का मौका मिल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की कामयाबी का ढिढोरा पीट रहे हैं, अब उनकी परीक्षा का सही समय है। प्रधानमंत्री मोदी को देश की नक्सलवाद जैसी आंतरिक समस्या के समाधान के लिए अपना 56 इंच का सीना तानकर खड! हो जाना चाहिए।

रविवार, 23 अप्रैल 2017

उर्दू यूनिवर्सिटी के लिए ज़मीन देंगे योगी आदित्यनाथ , पूरे हर्षो उल्लास के साथ कर रहे है दोहरी राजनीति



आप सभी को तो ज्ञांत ही होगा कॉंग्रेस के गृहमंत्री (2014 के पहले ) तक के बारे उनके निर्देश और क़ानून के बारे मे उनका फैशला मुस्लिम विकाश और हिंदू विनाश के बारे मे तो अब आप के पास भारतिया जनता पार्टी के गृहमंत्री माननीया राजनाथ सिंग जी भी वही कर रहे है जो राजनीति मे होता चला आ रहा है ! इन्हे कश्मीरी लड़को को पीटना ग़लत और गैर क़ानूनी लगता है . लेकिन कश्मीरी लड़को द्वारा हमरे जबाज सिपाहियो पर पत्थरो से मारना क़ानूनी इज़ाज़त के तौर पर देखते है ! 
इसे ही दोहरी राजनीति कह सकते है ! खैर ये तो गृहमंत्री जी के उच्च कोटि के विचार है लेकिन हमरे संत योगी जी के विचार मे क्या हुआ की जो आज तक कट्टर हिंदू बोले जाते थे आज तुस्टिकरण करते नज़र आ रहे है ! मुस्लिम के लिए उर्दू यूनिवर्सिटी के साथ साथ मुस्लिम लड़कियो को निकाह के लिए 20 -20 हज़ार रुपय दिए जाएँगे ऐसा आदेश जारी किया है योगी जी ने ! करना भी चाहिए बेटी तो सबकी होती है साथ हे लगे हाथ हिंदू के बेटी के लिए भी ये नियम लागू हो जाता तो कह सकते थे की योगी जी कार्य बहुत ही सराहनिया है ! लेकिन  ऐसा नही है ! जो दुखद है 

बाकी क्या होगा विकास ये तो भविष्य के गर्भ मे है !

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017



चीन का डर

                                                                                                         By- Sangam Mishra


Dalai

बौद्ध गुरु दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा पर चीन की प्रतिक्रिया में अतिरेक दिखता है। वह इस तरह शोर मचा रहा है जैसे कोई बहुत बड़ी आफत आ गई हो। एक तरफ उसने अपने सरकारी मीडिया के जरिए भारत को कड़ा जवाब देने की बात कही, दूसरी तरफ भारतीय राजदूत को बुलाकर अपना विरोध भी दर्ज कराया। चीन को लगता है कि भारत उसे चिढ़ाने के लिए दलाई लामा का इस्तेमाल कर रहा है लेकिन भारत का स्टैंड इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है। उसने चीन से साफ कह दिया है कि वह हमारे अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप न करे। भारत ने हमेशा से ‘एक चीन’ नीति का सम्मान किया है और चीन से भी इसी तरह की उम्मीद रखता है। दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा का मकसद धार्मिक और आध्यात्मिक है और इसका कोई राजनीतिक मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए।

सबसे बड़ी बात है कि दलाई लामा कोई पहली बार अरुणाचल नहीं जा रहे। उन्होंने पिछली बार नवंबर 2009 में वहां की यात्रा की थी और 1983 से 2009 के बीच छह बार पहले भी वहां जा चुके हैं। आश्चर्य तो यह है कि चीन को दलाई लामा की गतिविधियां संदेहास्पद और खतरनाक लगती हैं लेकिन पाकिस्तान में मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड अजहर मसूद और हाफिज सईद की आतंकी गतिविधियों पर उसे कोई ऐतराज नहीं है। उन पर प्रतिबंध लगाने की यूएन में भारत की कोशिशों को चीन दो बार विफल बना चुका है।

दरअसल चीन तिब्बत को लेकर इतना ज्यादा डरा हुआ है तो इसकी कुछ ठोस वजहें हैं। आर्थिक नजरिए से निकट भविष्य में तिब्बत का महत्व बढ़ने वाला है। पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह से जुड़ी गतिविधियों और नेपाल के साथ व्यापारिक-सामरिक रिश्तों की सफलता का चीन के लिए कोई अर्थ तभी बन पाएगा जब तिब्बत में शांति-सौहार्द सुनिश्चित किया जा सके। उसकी तेल-गैस पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रही है। चेंगडू जैसे बड़े सैनिक अड्डे का दक्षिणी-पश्चिमी एशिया पर प्रभाव भी तिब्बत के जरिए ही सुनिश्चित किया जा सकता है। चीन ल्हासा के दक्षिण-पूर्व में ब्रह्मपुत्र पर झांगमू बांध के बाद चार और बांध बना रहा है। तिब्बती इन बांधों को पसंद नहीं कर रहे। वह इन्हें अपने पर्यावरण की क्षति का एक बड़ा कारण मानते हैं। चीन को लगता है कि तिब्बत के निकटवर्ती इलाकों में दलाई लामा का बढ़ता प्रभाव कहीं उसको अशांत क्षेत्र न बना दे।
Dalai

बहरहाल, भारतीय राजनेताओं को अपने बयानों में इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि दोनों देशों में तनाव बढ़ने न पाए। हमारे व्यापारिक रिश्ते अभी काफी मजबूत हो चुके हैं। भारत के लिए चीन दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और चीन का निवेश भी हमारे यहां लगातार बढ़ रहा है। जाहिर है दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। ऐसे में जिम्मेदार लोगों को ऐसा कुछ भी कहने या करने से बचना चाहिए जिससे दोनों देशों की जनता के हित प्रभावित होते हों।

सोमवार, 10 अप्रैल 2017

भारत माता की जय, किन्तु…

                                                                                                                         

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अपने अनुभव से यह बात कह सकता हूँ कि किन्तु, परन्तु जैसे शब्द निश्चित रूप से किसी महत्वपूर्ण मामले में प्रयोग नहीं किये जाने चाहिए. विशेषकर जब यह देशभक्ति का सवाल हो, राष्ट्र का सवाल हो तब तो कतई नहीं! पर ‘भारत माता की जय’ के सन्दर्भ में अगर ये शब्द लगाई जा रहे हैं तो हमें स्थिति की गम्भीरता पर निश्चय रूप से ध्यान देना चाहिए, क्योंकि अगर एक तरफ हम अपने देश की महानता, उसके लोकतंत्र और उसके विश्व गुरु होने का दम भरते हैं और दूसरी ओर अगर ‘भारत माता की जय’ जैसी आधारभूत शब्दावली पर विवाद उत्पन्न करते हैं और उत्पन्न विवाद को बढ़ावा देते हैं तब यह स्थिति निश्चय ही शोचनीय हो जाती है. शोचनीय इसलिए, क्योंकि नेता और विवाद उत्पन्न करने वाले लोग तो विवाद उत्पन्न करके चले जायेंगे, किन्तु कच्चे मन के युवा और विद्यार्थियों को इन शब्दों से अंधभक्ति अथवा नफरत करने की सीख स्थायी रूप से दे जायेंगे! मैंने पहले विचार किया था कि इस मामले को अनदेखा किया जाना चाहिए और इस पर लेख इत्यादि नहीं लिखूंगा. कुछ ऐसी ही धारणा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने व्यक्त करते हुए कहा था कि किसी को भारत माता की जय बोलने के लिए विवश नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि ऐसा माहौल तैयार किया जाना चाहिए, जिससे लोग खुद यह बोलें. हालाँकि, यह भी एक बिडम्बना ही है कि इस पूरे मामले में हालिया विवाद भी मोहन भागवत के बयान के बाद ही शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने इस बात पर अफ़सोस जताया था कि ‘आज की युवा पीढ़ी को भारत माता की जय बोलना भी सिखाना पड़ता है.’ हालाँकि, उनका बयान एक सामान्य बुजुर्ग जैसा ही था जो बच्चों को अच्छी आदतें सिखाना चाहता है, किन्तु उनके बयान के बाद बैटिंग करने वालों ने इस मुद्दे को गलत तरीके से तूल दिया और इस कदर तूल दिया कि खुद मोहन भागवत को ही इससे पीछे हटना पड़ा. आखिर कोई भी समझदार व्यक्ति देश को इन मुद्दों पर कैसे उलझा सकता है?
इस मुद्दे का हालिया प्रभाव श्रीनगर के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) में नजर आया, जहाँ 31 मार्च से कश्मीरी और ग़ैरकश्मीरी छात्रों के बीच तनाव बना हुआ है. हालाँकि, इसके पीछे तमाम दूसरी वजहें एवं विघटनकारी शक्तियों का प्रकोप भी है, लेकिन सच तो यही है कि इस मुद्दे को लेकर राजनीति करने का ‘गैप’ छोड़ा गया है. व्यक्तिगत रूप से मुझे कतई नहीं लगता है कि ‘भारत माता की जय’ के मुद्दे को तूल देकर हम देशभक्तों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर सके हैं, बल्कि इसके विपरीत नरेंद्र मोदी के विकास के अजेंडे को कहीं बड़ा झटका ही लगा है. सहिष्णुता-असहिष्णुता के बाद इस मुद्दे को सर्वाधिक चर्चा मिली है और ये बहस जैसे ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही है! इसी कड़ी में, दारुल उलूम के मुफ़्तियों का फतवा सामने आया है जिसके मुताबिक ये कहा गया कि ‘भारत माता की जय’ बोलना इस्लाम के खिलाफ है, हालांकि दारुल उलूम से चले ऐसे फतवे पर इस्लामी दुनिया में ही सवाल खड़े होने लगे हैं. पहले भी जब असदुद्दीन ओवैसी ने बयान दिया था तब जावेद अख़्तर और कई दूसरे लोग उसके ख़िलाफ़ खड़े हो गए थे इस बार भी इस फतवे पर सवाल उठ रहे हैं. इस पूरे मुद्दे पर बीच की लाइन को गौर से देखना आवश्यक है. दारुल उलूम का कहना है कि ये नारा उनके लिए जायज़ नहीं है. हालांकि उनका साफ़ कहना है कि वो एक मज़बूत भारत और भारतीयता के हिमायती हैं लेकिन वो जिस तरह ‘वंदे मातरम’ नहीं बोल सकते उसी तरह ‘भारत माता’ की जय भी नहीं बोल सकते. इसके पीछे उन्होंने तमाम इस्लामी विद्वानों, मौलवियों के हवाले से तर्क भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है. दारुल उलूम का मानना है कि ‘इंसान ही इंसान को जन्म दे सकता है, धरती मां कैसे हो सकती है? ठीक है, सबकी अपनी बातें हैं और सबका अपना विश्वास है और अगर वह देश के कानून का पालन करते हैं तो बेवजह के विवाद से क्यों नहीं बचना चाहिए? मैं कई बार अति देशभक्ति दिखाने वालों से पूछता हूँ कि ‘क्या देश का बहुसंख्यक हिन्दू ही इस बात से इत्तेफाक रखता है कि ऐसे मुद्दों पर उत्पात मचाया जाय!’
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मैं ऐसे लोगों से पूछता हूँ कि कितनी मुश्किल और कई पीढ़ियों की तपस्या के बाद नरेंद्र मोदी जैसे नेता के चमत्कार से दक्षिणपंथी सत्ता में आ सके हैं. ऐसे में बीफ, सहिष्णुता, भारत माता की जय जैसे विकास से दूर के मुद्दों के कारण हिन्दू बिदक गया तो… ?? तो फिर 2019 के चुनाव में भाजपा केंद्र की सत्ता से बाहर हो जाएगी, फिर कैसे बनेगा ‘हिन्दू राष्ट्र’! फिर कौन बोलेगा ‘भारत माता की जय’? सच तो यह है कि भाजपा के कई नेताओं और समर्थकों को खुद ही देशभक्ति और भारत माता से मतलब नहीं है, नहीं तो वह कोरी बकवास करके जनता के बीच वैमनस्य फैलाने की बजाय ठोस कार्यों में लगे रहते! उन्हें इस बात का मलाल होना चाहिए कि वह दिल्ली और बिहार में क्यों हार गए? उन्हें इस बात का भी मलाल होना चाहिए कि अभी बंगाल, आसाम और पंजाब इत्यादि राज्यों के चुनावों में जनता उनके बारे में, उनकी नीतियों के बारे में क्या सोचती है? उन्हें इस बात की भी फ़िक्र होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी की तमाम योजनाओं की जानकारी जनता तक कैसे पहुंचे, जो अभी हो नहीं रहा है और इसके बारे में मोदी कई बार खुलकर अपने नेताओं और सांसदों पर नाराजगी तक जाहिर कर चुके हैं! आखिर, देश भक्ति भी जबरदस्ती की चीज़ क्यों बनाई जा रही है? अगर देशभक्ति दिखानी है तो जुबान से नहीं अपने कर्म से दिखाओ. भारत माता का बार-बार नाम लेकर हम न भारत माता का सम्मान बढ़ाते हैं न भारत की शक्ति! फिर खोखली नारे बाजी से क्या फायदा? देश की जनता बखूबी देख रही है कि पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान के आईएसआई अफसरों को कैसे देश में घुसाकर भारतीय प्रतिष्ठान को नीचा दिखाया गया. वह तो शुकर है कि इस देश में विपक्ष के भीतर दम नहीं है, अन्यथा वह पठानकोट और पाकिस्तानी जेआईटी के मामले पर केंद्र और भाजपा की नाक में नकेल कस देते! किन्तु, भारत माता की जय बोलने का दिखावा करने वालों को यह नहीं समझना चाहिए कि देश की जनता को ‘पठानकोट जैसे मामलों’ की खबर या समझ ही नहीं है! है उसे समझ, किन्तु वह अपनी समझ का पिटारा समय पर खोलेगी.
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जहाँ तक प्रश्न है भारत माता का तो हमें जरुरत है इस विषय में गहराई से सोचने और समझने की! आखिर, भारत माता एक आदर्श भारत की कल्पना ही तो है, एक ऐसे सुन्दर देश की, जिसमें कोई दुःख-तकलीफ , झगड़े-विवाद न हों, सबके पास रोजगार हो, कोई भोजन और जल के अभाव में न मरे, जैसा कि अभी हो नहीं रहा है! यदि ऐसा होता तो मुंबई हाई कोर्ट को आईपीएल और किसानों को जल के अभाव में तड़पने का प्रश्न नहीं उठाना पड़ता और न ही उसे तमाम धुरंधरों को फटकारना ही पड़ता! साफ़ है कि जब सामाजिक गैर बराबरी दूर होगी तो ऐसी ‘माता तुल्य धरती’ के लिए हर किसी के मुंह से जय निकलेगी, किसी से जबरन निकलवाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. आज देश के 30 प्रतिशत भूभाग पर नक्सलवाद फ़ैल चुका है, क्या उसके बारे में हम चिंतित हैं? कारण चाहे जो भी हो, किन्तु तथ्य यही है कि हमें सामाजिक, राजनीतिक रूप से अभी काफी लम्बा सफर तय करना है और इसके वगैर सिर्फ मुंह से ‘भारत माता की जय’ कहलवाने का कोई अर्थ भी है या नहीं, यह स्वयं ही विचार करने योग्य प्रश्न है. कभी कभी ऐसा लगता है कि समाज के बहुत बड़े तबके को “भारत माता की जय” नामक शस्त्र के सहारे उकसाया जा रहा है, जिसके पीछे तुच्छ राजनीतिक स्वार्थ कहीं ज्यादे हैं. इसी पूरे वाकये को लेकर एक चुने हुए जनप्रतिनिधि को एक राज्य की विधानसभा से सिर्फ इसलिए निलंबित कर दिया गया कि वह शख्स भारत माता की जय नहीं बोलना चाहता लेकिन वह ‘जय हिन्द’ बोल रहा है, लेकिन जय हिन्द से काम कहाँ चलने वाला आपको तो “भारत माता की जय” ही बोलना पड़ेगा, क्योंकि हम ऐसा चाहते हैं! ये कैसी देशभक्ति है, ऐसी खतरनाक देशभक्ति से समाज का क्या हाल होगा, यह विचारणीय प्रश्न हैं! एक तरफ असदुद्दीन जैसे लोग मुसलमानों को भड़काते हैं कि कोई गले पर छूरी भी रख दे तो ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलना तो दूसरी ओर बाबा रामदेव और महाराष्ट्र के सीएम फड़नवीस कहते हैं कि भारत माता की जय नहीं बोलने वालों का गला काट देंगे या उसे इस देश में रहने नहीं देंगे! आखिर, इस तरह की चर्चा से हम क्या हासिल कर पा रहे हैं, सिवाय देश को पीछे धकेलने के, यह बात हर एक को समझनी चाहिए.
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अभी हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने सऊदी अरब जैसे कट्टर मुस्लिम राष्ट्र की यात्रा की और वहां उनकी मौजूदगी में मुस्लिम महिलाओं एवं पुरुषों ने “भारत माता की जय” के नारे लगाए, इसके लिए उन्हें बाध्य नहीं किया गया, बल्कि यह राष्ट्रगौरव स्वतः ही उनके भीतर उत्पन्न हुआ! भारत के भी आधे से अधिक मुसलमान यह मानने लगे हैं कि वह विश्व के अन्य मुसलमानों से सुखी और आज़ाद हैं, जो विश्व के अन्य मुसलमानों को नसीब नहीं है. साफ़ है कि इस तरह के विवादों से न प्रत्यक्ष रूप में कोई फायदा है और न ही विचारधारा के स्तर पर ही कोई बड़ा बदलाव किया जा सकता है, क्योंकि देश का बहुसंख्यक हिन्दू अपेक्षाकृत इस तरह के मुद्दों को नापसंद ही करता है. हिन्दू हितों और भारत माता की जय बोलने का आदेश देने वालों को पहले इस बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि तमाम जातियों में बंटा देश किस तरह एकजुट हो! क्योंकि ऐसा होने के बाद ही भाजपा का अगले कुछ सालों तक सत्ता में रहना सुनिश्चित हो सकेगा, अन्यथा सत्ता हाथ से जाएगी और फिर व्यापक नेतृत्व से भाजपा और संघ को महरूम होना पड़ेगा. ऐसे में जल्दबाजी करके किसी भी बड़े बदलाव की अपेक्षा रखना उसकी ‘भ्रूण-हत्या’ के समान ही होगा. उम्मीद है ‘भ्रूण-हत्या’ का अर्थ ‘भारत माता की जय’ बोलने वाले जरूर ही समझते होंगे, आखिर हमारे देश में आज भी इसकी संख्या सर्वाधिक जो है!

चुनाव प्रचार..!!


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चुनावो का मौसम तो भारत में हर समय बना ही रहता हैं..
जैसे अभी 5 राज्यो के विधानसभा चुनाव खत्म होने के बाद..दिल्ली नगर निगम के चुनाव आ गए..
हर चुनाव की सबसे खास बात होती हैं.
.नेताओं और अलग अलग पार्टियों का चुनाव प्रचार..
जैसे..कोई छोटी पार्टी हैं..तो उसके नुमाइंदे कभी कभी आपको दबी आवाज़ में खुद को वोट देने के लिये घूमते मिलेंगे..
तो अगर कोई निर्दलीय होगा..तो वो शायद ही आपको अपने इलाके या गाली मोहल्ले से बाहर प्रचार करता हुआ दिखाई देगा..
अब बारी आती हैं..बड़ी पार्टियों की..या फिर उन नेताओ की जो थोड़ा बहुत जन आधार रखते हैं..
ऐसे नेता..जो किसी पार्टी से सम्बंध नहीं रखते..या फिर जिन्होने कोशिश तो की..लेकिन किसी पार्टी से टिकट लेने में नाकाम रहें..!!
ऐसे क्षेत्रीय नेताओ को सबसे ज्यादा चुनौती खुद से ही होती हैं..क्योंकि इन्हें ही अपनी “सामाजिक इज्जत” को बचाना हैं..
क्योंकि..कोई अपने इलाके में नेताजी बना फिरता हैं..तो कोई प्रधान साहब… अब इन सभी को अपनी इज्जत या धोंस बनाएँ रखने के लिये चुनाव जीतना जरूरी हो जाता हैं..
कुछ बड़ी पार्टियाँ से सम्बंध रखने वाले नेता..
जो की वर्तमान में पार्षद ( या विधायक या जो भी) बने होते हैं..
उन्हें उनकी पार्टी जब टिकट नहीं देती तो उनमे से कोई विरोधी पार्टी से सेटिंग ना हो पाने की सूरत में निर्दलीय ही चुनाव में कूद पड़ता हैं..
क्योंकि ऐसे नेताओ को पार्टी उनके 5 साल के कार्यकाल के बाद जिताऊ नहीं समझती..
ऐसे नेताओ के बारे में मेरा मनना हैं की इन्होने कभी भी अपने कार्यकाल में अपने घर से बाहर झांक कर भी नहीं देखा.. ऐसे नेता अपने VISITING CARD पे पार्षद / विधायक / सांसद लिखवा कर अपने कर्तव्य को पूर्ण समझती हैं..
मेरा मानना हैं की ऐसे नेताओं का चुनाव प्रचार सबसे अछा होता हैं..क्योंकि इन्होने चिल्ला चिल्ला कर झूठ बोला होता हैं..
जैसे मेरे ही क्षेत्र के वर्तमान पार्षद..जो मेरे पड़ोसी भी हैं..कभी भी घर से बाहर निकल कर भी नहीं देखा..और इनका चुनाव प्रचार कहता हैं..
” अपने क्षेत्र में विकास की गंगा आगे भी बहाये रखने के लिये..लोगो ने इन्हे दोबारा चुनाव मैदान में उतरा हैं…” यही भाईसाहब 1 महीने पहले तक किसी पार्टी के पार्षद ते..आज टिकट ना मिलने की व्जह से निर्दलीय ही हैं..
खैर..ऐसे नेताओ से ज़रा बचके रहिये…क्योंकि आज समय बदल रहा हैं…आज जनता चहरे पर या पार्टी पर कम…काम पर ज्यादा वोट देती हैं..
अबकी बार वोट सोच समझ कर दीजियेगा.
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योगी इफेक्ट: राइट टाइम हुए अफसर, नहीं मिल रही पार्किंग


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नवाबों के शहर में अब अफसरों ने अपनी नवाबी छोड़नी शुरू कर दी है। सूबे की राजधानी लखनऊ में वर्क कल्चर में सुधार होता दिखाई दे रहा है। यहां के नौकरशाह पान-गुटका चबाने की जगह चूइंग गम और टॉफी खाने लगे हैं, समय पर ऑफिस पहुंच रहे हैं। आलम यह है कि बुधवार को सचिवालय के बाहर कार पार्किंग की जगह ही नहीं थी।

सचिवालय के गेट नंबर 7 पर तैनात गार्ड ने बताया, 'फुल अटेंडेंस है साहेब, बाबू लोग काम चालू कर दिए हैं... इसलिए पार्किंग फुल है।' अब से 10 पहले तक ऐसा नहीं था। गार्ड ने कहा, 'पहले साहेब लंच के बाद आते थे और कहते थे... चलो चाय पीकर आते हैं।'

बुधवार को एक चपरासी ने जैसे ही जेब से पान मसाला का पाउच निकाला, एक नौकरशाह ने उसे याद दिलाया कि सरकारी दफ्तरों में तंबाकू का सेवन मना है। उसने झट से पाउच जेब में वापस रख लिया। विधान भवन में तैनात एक अन्य चपरासी ने कहा, 'गुटका और पान मसाला पसंद करने वाले अब चूइंग गम और टॉफी खा रहे हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि वे इनके रैपर इधर-उधर नहीं फेंक रहे, उसे जेब में रख ले रहे हैं।'

राज्य के वन विभाग ने अपने कॉरिडोर में पोस्टर लगा रखे हैं, जिसमें लिखा है, 'आप कैमरे की नजर में हैं, गुटका खाने पर 1000 रुपये जुर्माना ललेगा'। रोजाना 18-20 घंटे काम के लिए तैयार रहने को लेकर सीएम की अपील के बाद से अटेंडेंस में सुधार आया है। बायोमेट्रिक अटेंडेंस सिस्टम से मदद मिल रही है।

जल संसाधन राज्य मंत्री उपेंद्र तिवारी कहते हैं, 'मैं सबसे पहले यही देखता हूं कि मेरा कमरा ढंग से साफ किया गया है या नहीं।' वह 9:30 बजे से पहले ऑफिस करना सुनिश्चित करते हैं। उन्होंने अपने स्टाफ को साफ निर्देश दिए हुए हैं कि फाइलें क्रम में रखी जाएं और उनपर धूल ना इकट्ठा होने दी जाए।

ट्रांसपॉर्ट मिनिस्टर स्वतंत्र देव सिंह ने कहा कि स्वच्छता के मामले में कोई कोताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उन्होंने ट्रांसपॉर्ट कमिश्नर ऑफिस के दरवाजे को साफ कर पहले दिन स्वच्छता मुहिम की शुरुआत की थी।

सूर्य प्रताप शाही, धर्मपाल सिंह और सुरेश खन्ना जैसे वरिष्ठ नेता भी सीएम के ऑर्ड का अनुसरण कर रहे हैं और समय पर दफ्तर पहुंच रहे हैं, वातावरण स्वच्छ रखा जा रहा है।

नई राजनीति का काला चेहरा हैंअरविंद केजरीवाल


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शुंगलू आयोग की जाँच रिपोर्ट के बाद सामने आये दिल्ली सरकार के नीत नए घोटालो ने उपरोक्त कहावत चरितार्थ  कर दी है.जिस दिल्ली की जनता ने कांग्रेस  के शासन से परेशान हो कर एक नयी तरह की राजनीति का वादा करने वाले अरविन्द केजरीवाल को महाप्रचंड बहुमत से जिताया, उन्होंने दिल्ली की जनता की आशाओ पर भारी तुषारापात कर दिया है.जो जो वादे उन्होंने दिल्ली की जनता से किये,सारे काम उसके विपरीत किये है.अब हालात ये है कि दिल्ली सरकार के तीन मंत्री ,मुख्या सचिव और कई विधायक भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे है.भ्रष्टाचार मुक्त शासन का वादा पूर्णतया खोखला रह गया है.ये देश के पहले मुख्यमंत्री है जिनके पास कोई भी विभाग नहीं है.जिसका मतलब है की ये बिना काम के मुख्यमंत्री पद का पूरा लुफ्त और फायदा उठा रहे है.सारी फाइल्स उपमुख्यमंत्री के साइन से ही आगे जा रही है.
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स्वराज, लोकपाल ,फ्री wifi ,महिला सुरक्षा,नो VVIP कल्चर,मोहल्ला सभा ये वादे जो अब सायद कभी पुरे नहीं होंगे.बिजली और पानी का बिल जरूर आधा किये गया है लेकिन उसके बदले दिल्ली की जनता से केजरीवाल के बैंगलोर इलाज का बिल,दिल्ली सरकार के मंत्रीयो के विदेश दौरे के खर्चे का बिल (इसमें सेक्स टेप कांड के आरोपी संदीप कुमार के बच्चे की डिलीवरी अमेरिका करवाई गयी है भी शामिल है),केजरीवाल के वकील का बिल और उनके मंत्रियो के चाय समोसे का बिल भी,भरवा दिया है.केजरीवाल ने अपने पद का दुरुप्रयोग करते हुवे अपनी सरकार के १ साल पुरे होने पर १६००० प्रति प्लेट के हिसाब से ५ स्टार होटल ताज से अपने समर्थको के लिए खाने की थाली भी मंगवाई है.और आम आदमी के कुछ समर्थक इस पर भी खुश है की उनके कुछ सौ रूपये बिजली पानी में बच गए.
इतना होने के बाद भी केजरीवाल की महाभ्रष्ट सरकार ने अपने सारे विधायकों की सैलरी ४ गुना बढ़ाने का प्रस्ताव पास किया है जिससे केजरीवाल की सैलरी भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी ज्यादा हो जायेगी.अपनी सरकार के दुष्प्रचार के लिए इस महाभ्रष्ट सरकार ने ५६० करोड़ का फण्ड जारी किया,जिसमे से आप आदमी पार्टी से ९७ करोड़ रूपये की वसूली का आदेश माननीय उपराज्यपाल जी ने दिल्ली सरकार को दिया है.
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एक वादा और था सरकारी नौकरियों में और ठेको में भाई भतीजा वाद को रोकने का और उसका हाल ये है की अरविन्द जी के साले को दिल्ली के स्कूलों में मिड डे मील सप्लाई का ठेका दिया गया जिसमे मरा हुवा चूहा बरामद हुवा.नियमो को ताक पर रख कर दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री के रिश्तेदार को क्लास-१ का अधिकारी बना दिया गया.दिल्ली सरकार ने दिल्ली डायलॉग कमिशन के नाम से एक संस्था बना कर उसमे आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता भर दिए गए बाकी जो बचे उनके उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के पर्सनल स्टाफ में जगह दे दी गयी.अब यहाँ ये बताना जरुरी है की मनीष सिसोदिया के पर्सनल स्टाफ की संख्या प्रधानमंत्री जी के स्टाफ की संख्या से बहुत ज्यादा है.
लेकिन धन्य है दिल्ली की जनता जिसने ये जहर पिया और देश को इस महाभ्रष्ट पार्टी और उसके नैतिकता विहीन नेताओ से बचाया.हर दिन केजरीवाल और इनकी पार्टी के कारनामे सुन कर यही लगता है कि बस ये अंतिम स्तर है राजनीति का लेकिन अगले ही दिन केजरीवाल और इसकी पार्टी उससे भी निम्नतर स्तर पर पहुंच जाती है.बस अब इनको पूर्णतया जवाब दिल्ली कि जनता ही दे सकती है.लोकतंत्र कि यही खूबशूरती है कि ५ साल के लिए जनता आप को राजा बनाती है और जब आप जनता कि उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते तो अगले ही चुनावों में जनता आप को सबक भी सीखा देती है. कांग्रेस सपा बसपा और खुद आप पार्टी इसका उदाहरण है.
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पहली बार: देश के चारों बड़े हाई कोर्ट में महिलाएं चीफ जस्टिस


न्यायिक सेवा में अधिकतर उच्च पदों पर जहां पुरुष काबिज हैं, वहीं पहली बार एक ऐसा संयोग बना है, जो आपने आप में थोड़ा हैरान करने के साथ ही सुखद भी है। देश में पहली बार चारों बड़े और सबसे पुराने हाई कोर्ट्स बॉम्बे, मद्रास, कलकत्ता और दिल्ली हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस महिलाएं हैं।


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मद्रास हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस के तौर पर इंदिरा बनर्जी की नियुक्ति के साथ ही देश की महिलाओं के नाम यह इतिहास दर्ज हो गया। इन चारों हाई कोर्ट की स्थापना औपनिवेशिक सत्ता के दौरान हुई थी। मुख्य न्यायाधीश को मिलाकर मद्रास हाई कोर्ट में कुल 6 महिला जज हैं, जबकि 53 पुरुष जज हैं।

उधर बॉम्बे हाई में देश के सभी उच्च न्यायालयों से ज्यादा महिलाएं है। यहां 61 पुरुष जज हैं, तो वहीं 11 जज महिलाएं हैं। मुख्य न्यायाधीश मंजुला चेल्लूर के बाद बॉम्बे हाई कोर्ट में नंबर दो की पोजिशन पर भी एक महिला जस्टिस वी एम ताहिलरामनी हैं। अपने कई बड़े फैसलों को लेकर प्रख्यात दिल्ली हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस जी. रोहिणी इस पद पर अप्रैल 2014 से हैं। दिल्ली हाई कोर्ट में महिला जजों की संख्या 9 है, जबकि पुरुष जजों की संख्या 35 है। यहां भी नंबर दो की पोजिशन पर महिला जज जस्टिस गीता मित्तल हैं।

कलकत्ता हाई कोर्ट की कार्यकारी चीफ जस्टिस निशिता निर्मल इस पद पर 1 दिंसबर 2016 से हैं। लेकिन इस हाई कोर्ट में महिला और पुरुष जजों का अनुपात बेहद कम है। यहां सिर्फ 4 महिला जज हैं, जबकि पुरुष जजों की संख्या 35 है।

देश के हालात की बात करें तो देशभर के 24 हाई कोर्ट के 632 जजों में सिर्फ 68 महिलाएं है। 28 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट में भी सिर्फ एक महिला जज जस्टिस आर. भानुमति हैं।

खुद को फिर खड़ा करने में जुटी BSP, बीजेपी को बताएगी पिछड़ा-ब्राह्मण विरोधी



MAYASATISH
पहले लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव में करारी शिकस्त के बाद बीएसपी ने अब नए सिरे से खुद को खड़ा करने की तैयारी शुरू कर दी है। पार्टी में बगावत की सुगबुगाहट के बीच इसके लिए मायावती ने एक खास 'प्लान' तैयार किया है। इसके तहत बीजेपी को ऐंटी ओबीसी और ऐंटी ब्राह्मण के तौर पर दिखाने की कोशिश की जाएगी। बीएसपी को लगता है कि ऐसा कर के वह एक बार फिर से उन समुदायों का भरोसा जीत सकती है जिन्होंने पिछले दो चुनावों में उसका साथ छोड़ दिया।

बीएसपी लोगों के बीच जाने की शुरुआत अगले सप्ताह से ही करने जा रही है। पार्टी लोगों के बीच जाकर सबसे पहला सवाल बीजेपी द्वारा योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने पर उठाएगी। पार्टी की दलील यह होगी कि बीजेपी ने केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पिछड़ों को आकर्षित किया, उनके वोट हासिल कर लिए लेकिन जब मुख्यमंत्री बनाने की बारी आई तो मौर्य की अनदेखी कर हिंदुत्व की पहचान रखने वाले सवर्ण ठाकुर को मुख्यमंत्री बना दिया।

बीसएपी का कहना है, 'ऐसा कर के बीजेपी ने अपनी पिछड़ा विरोधी मानसिकता को फिर उजागर कर दिया। बीजेपी ने आदित्यनाथ को सीएम और मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाकर 'पिछड़ों' को अपमानित किया है।' बीजेपी को 'पिछड़ा विरोधी' बताने के लिए के लिए बीएसपी लोगों को यह भी बताएगी कि किस तरह बीजेपी ने मंडल कमीशन की सिफारिशों का विरोध किया था और पिछड़ों को मिलने वाले 27% आरक्षण को रोकने की मंशा से वीपी सिंह सरकार को गिरा दिया था।

इसके अलावा बीएसपी कल्याण सिंह का भी जिक्र करेगी। वह लोगों को बताएगी कि किस तरह बीजेपी ने आरएसएस के हिंदुत्व के अजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पिछड़े वर्ग के नेता कल्याण सिंह का इस्तेमाल कर सत्ता हासिल की और बाद में उनकी सरकार को गिरवा भी दिया। बीएसपी का कहना है कि बीजेपी ने हमेशा से ही पिछडों को धोखा दिया है और उसे उम्मीद है कि पिछड़े वर्ग के मतदाता भविष्य में इसे लेकर सतर्क रहेंगे।

बीएसपी सिर्फ पिछड़ों की ही बात नहीं करेगी, बल्कि यह कहकर ब्राह्मणों को भी साधने की कोशिश करेगी कि बीजेपी ने एक ठाकुर को सीएम बनाकर ब्राह्मणों की अनदेखी की है। ब्राह्मणों को साधने की पीछे बीएसपी की सोच यह है कि ऐसे वक्त में जब सभी सवर्ण जातियां बीजेपी के पक्ष में लामबंद हैं, बीएसपी ब्राह्मणों की आवाज बनकर आने वाले चुनाव में उनका समर्थन हासिल कर सकती है। माना जाता है कि 2007 के चुनाव में बीएसपी की जीत में ब्राह्मणों वोटरों का बड़ा योगदान था।
इसके अलावा ईवीएम में कथित गड़बड़ी का मुद्दा भी बीएसपी छोड़ना नहीं चाहती। पार्टी 11 अपैल से हर जिले में इसे लेकर प्रदर्शन की शुरुआत करेगी और लोगों को बताएगी कि बीजेपी की जीत के पीछे सबसे बड़ी वजह ईवीएम में की गई गड़बड़ी है। माना जा रहा है कि इसके पीछे पार्टी की मंशा 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी करना भी है क्योंकि विधानसभा चुनाव में हार के बाद कार्यकर्ताओं को मनोबल टूटा हुआ है और पार्टी के पास ज्यादा वक्त भी नहीं है।

इन प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाले पार्टी पदाधिकारियों को बीएसपी नेतृत्व ने उन तमाम मुद्दों की जानकारी दे दी है जिन्हें जनता के बीच उठाया जाना है। पार्टी का फोकस खास तौर पर पिछड़ों और अति पिछड़ों पर रहेगा क्योंकि इन वर्गों के वोट का बड़ा हिस्सा चुनाव में बीजेपी के साथ चला गया।

सरकारों को भी नाच नचा रही शराब

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सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश के बाद जिस तरह उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, उत्तराखंड और हरियाणा से औरतों की अगुवाई में शराब विरोधी आंदोलन उठता दिख रहा है वह काफी लोगों को डराने लगा है। इसमें वह भी शामिल हैं जो मांसाहार और पश्चिमी प्रभाव वाले खुले प्यार के इजहार के विरोधी हैं, जो भारतीयता के नाम पर चीजों को सतयुग में ले जाना चाहते हैं। सीधे वह नहीं तो उनके समर्थन से बनी सरकारें जरूर शराबबंदी की दिशा में एक बड़ा कदम बन सकने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलीता लगाने में जुटी हैं।

कतराने का जुगाड़
वैसे यह खबर भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिन सज्जन ने राजमार्गों के किनारे शराब के ठेके बंद कराने के लिए जनहित याचिका दी थी, खुद उन्हें भी अंदाजा न था कि इस चक्कर में मॉल, बियर बार या बड़े होटलों के पब भी आ जाएंगे। मीडिया में वह लगभग पछतावे की अवस्था में दिखाई दिए। पर इस फैसले पर हंगामा वाले अंदाज में दिखे वह लोग, जिनका धंधा प्रभावित हुआ। होटल और मॉल के प्रतिनिधि विभिन्न टीवी बहसों में शराब बिक्री पर रोक के अदालती फैसले पर बचाव की मुद्रा अपनाने की जगह यह जता रहे हैं कि वह पर्यटन व्यवसाय को बढ़ावा देने और निवेश करने आ रहे विदेशियों की सेवा के लिए इस धंधे में हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट इसमें बाधक बन रहा है। बीच सड़क पर शराब बेचने की इजाजत नहीं होगी तो न पर्यटन चलेगा, न विदेशी निवेशक आएंगे।
राजमार्गों पर शराब की बिक्री से सड़क दुर्घटना बढ़ने के जिस तर्क को मानकर अदालत ने इतना बड़ा फैसला किया है वह अब कहीं चर्चा में नहीं है। शराब उत्पादकों की तरफ से भी लॉबीइंग जरूर शुरू हो गई होगी पर वह अभी खुलकर इस फैसले के विरोध में नहीं आए हैं। शराब के खुदरा व्यापारियों से भी तेज प्रतिक्रिया राज्य सरकारों की तरफ से आने लगी है। इस व्यवसाय में शराब बनाने या बेचने का जोखिम लेने की जगह बैठे-बैठे इस धंधे से सबसे ज्यादा कमाई करने में वही सबसे आगे हैं। वह शोर तो नहीं मचा रही हैं पर व्यापारियों और उत्पादकों की तुलना में उन्होंने ही सबसे पहले शराब के धंधे को बचाने और हाईवे पर शराब बिक्री रोकने के फैसले को बेअसर करने का जुगाड़ लगाना शुरू किया है।

पहल राजस्थान की बीजेपी सरकार ने की। फैसला आने के साथ ही उसने राज्य के कई राजमार्गों या शहर से लगे हिस्सों को डिनोटिफाई करना शुरू कर दिया। मतलब यह कि उन सड़कों को या सड़क के उस हिस्से को राजमार्ग नहीं रहने दिया गया। तकनीकी रूप से वह अब स्थानीय या शहरी सड़क बन गए। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। जब राजमार्ग ही नहीं होगा तब सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहां से लागू होगा। फिर नंबर आया पंजाब को नशे की गिरफ्त से मुक्त करने के चुनावी वायदे के साथ आई कांग्रेसी सरकार का। उसने भी शहरों से लगे राजमार्गों के करीब तीस किमी हिस्से को राजमार्ग की जगह शहरी सड़क बना दिया और शराब के मुख्य धंधे को बचा लिया।
खबर आई कि महाराष्ट्र सरकार भी यही तरीका अपनाने जा रही है। उसने ऐसी सड़कों की पहचान कर ली है जिस पर शराब की ज्यादा दुकानें हैं और जिनको डिनोटिफाई करने से मुख्य धंधा चलाने में कोई परेशानी नहीं होगी। हरियाणा की तकलीफ यह है कि उसकी ज्यादातर बड़ी सड़कें स्टेट हाईवे न होकर सीधे राष्ट्रीय राजमार्ग हैं। सो उसका काम ज्यादा मुश्किल है। लेकिन गरीबों की सबसे बड़ी हमदर्द ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल सरकार समेत कई राज्य सरकारें राजस्थान और पंजाब की देखादेखी यह आसान तरीका अपना रही हैं।
सिर्फ बिहार और गुजरात की सरकारें अभी चैन की बंसी बजा रही हैं क्योंकि उनके यहां शराबबंदी लागू है। इस अवसर का लाभ लेकर बिहार सरकार ने यह प्रचार अभियान भी छेड़ा है कि उसके यहां हुई शराबबंदी का उसके राजस्व पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। उलटे, उसके यहां अपराध बहुत घटे हैं, दुर्घटनाएं कम हुई हैं और मिठाई-दूध-दही की खपत काफी बढ़ गई है। इसके विपरीत गोवा का दावा है कि उसके लोग खूब शराब के अभ्यस्त हैं, उनके लिए सड़क से 500 मीटर दूरी का प्रावधान कोई मायने नहीं रखता। मुख्यमंत्री इस सीमा को 200 मीटर करना चाहते हैं। सबसे ज्यादा खपत वाले कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्य इस फैसले को चुनौती देना चाहते हैं। तमिलनाडु ने तो पब, होटल, मॉल और बियर बार को फैसले से बाहर करने की अर्जी भी डाल दी है। सौभाग्य की बात है कि शराब के सीधे विज्ञापन पर रोक है वरना मीडिया भी इस जंग में कूद जाता।
शिखर पर सनसनी
केंद्र सरकार शुरू में शराब को राज्य का मुद्दा मान कर हाथ झाड़ती लग रही थी लेकिन अब वह भी सक्रिय हो गई है। इस मामले में वह प्रेजिडैंशल रेफरेंस का सहारा लेना चाहती है और इसपर अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी से सलाह ली जा रही है। जरूरी नहीं कि सुप्रीम कोर्ट इस पुनर्विचार के अवसर पर अपना फैसला पलट ही दे पर केंद्र सरकार के लिए जरूरी होगा कि उसके पास राज्यों से इसकी लिखित मांग आए। अनुच्छेद 143 के अनुसार राष्ट्रपति से ऐसा करने का निवेदन वह तभी कर सकती है। वैसे, मुकुल रोहतगी पहले ही तमिलनाडु सरकार की इस याचिका की पैरवी कर चुके हैं कि अदालत का आदेश सिर्फ ठेकों पर लागू होता है, होटल, मॉल, पब और बियर बार पर नहीं। तो फिर देखिए, आगे दारू खुद नाचती है या औरों को नचाती है।

रविवार, 9 अप्रैल 2017

योगी को कर्मयोगी तुम ही बनाओगे




वक्त 90 के दशक के आखिरी साल, जगह जनपद-हरदोई, यूपीः
मैं अपनी दो छोटी बहनों का बड़ा और ‘काबिल’ भाई हुआ करता था। वे मन में उठने वाले हर सवाल को मुझ पर दाग दिया करती थीं और मैं आए न आए, उन्हें जवाब दे दिया करता था। ऐसे ही एक गरम दुपहरी को जब लाइट नहीं थी और हम बच्चे गर्मी में मम्मी के डर से कमरे में दुबके थे, छोटी बहन ने सवाल पूछा, ‘भइया कब ऐसा दिन आएगा जब पूरे दिन लाइट आएगी?’ मैंने अनमनेपन में जवाब दिया 2015 में आ जाएगी। मैंने इतनी दूर की डेडलाइन दी कि मेरी बहन को शायद अब ये डेडलाइन और घटना याद भी न हो, लेकिन यह वाकया मेरे जेहन में एक गोखरू की तरह गड़ा हुआ है। सरकारें आईं और गईं लेकिन बिजली का ये गोखरू नहीं निकला। मैं अब दिल्ली में रहता हूं और मेरी बहन अपने घर पर, लेकिन हरदोई में लाइट का जाना बदस्तूर जारी है।

यह कहानी इसलिए सुनाई क्योंकि भारी बहुमत की बीजेपी सरकार आने से मुझे बरसों पुरानी ये आस पूरी होती नजर आ रही है। इसे पढ़ कर शायद कुछ लोग कहें कि, ‘क्या यार अब भी चिरकुट वाली बात, बिजली-पानी से भी बड़े मसले हैं इतने प्रचंड वाली बहुमत की सरकार के आगे। हां, अगर ऐसा है तो मैं चिरकुट हूं और मुझे सरकार से सिर्फ बिजली और पानी चाहिए। मुझे लगता है कि अब हर यूपीवासी को इस अजेंडे से चिपक जाना चाहिए। जहां तक बात मंदिर बनवाने की है तो इससे न मुसलमानों को फर्क पड़ता है और न हिंदुओं को। हां, बिजली-पानी से जरूर पड़ता है क्योंकि इसके बिना न तो प्रदेश के किसानों के खेत में पानी पहुंचेगा और न शहरों में इंडस्ट्री। बाकी हर इलेक्शन कर्ज माफी का चूरन बांटने का धंधा तो चलता ही रहेगा। यूपी का भला विकास का संपुट साधने में ही है न कि राम और हिंदुत्व का आलाप लेने में। यह प्रदेश की जनता के साथ ही बीजेपी सरकार के लिए भी एक मौका है। मैं गारंटी लेकर कह सकता हूं कि अगर अगले 5 साल के भीतर प्रदेश की जनता को 24 घंटे बिजली मिलने लगी तो अगली बार भी बीजेपी को सरकार में आने से कोई नहीं रोक पाएगा।
अब आता हूं सांप्रदायिकता और उसके भूत पर। इसके लिए मैं कल की कुछ मुलाकातों को दृष्टांत बना रहा हूं। कल एक विचार गोष्ठी में जाना हुआ जहां वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा ने सांप्रदायिकता से निपटने का एक बेहतरीन नुस्खा सुझाया। उन्होंने कहा कि सबसे पहला काम कि तो हिंदू धर्म को कोसना और उसमें कमियां निकालना बंद करना होगा, दूसरा अल्पसंख्यकों को याचक की मुद्रा से बाहर आकर बिना डरे मुख्यधारा में आकर संघर्ष करना होगा। ये चुनौती मुश्किल है, लेकिन मेरे हिसाब से भी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ने का सबसे आसान और मुकम्मल तरीका यही है। इसी गोष्ठी में बोलते हुए इतिहासकार आदित्य मुखर्जी का सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई को खोखली लड़ाई कहना भी काफी हद तक सही लगा।
उन्होंने आजादी के बाद बापू के नोआखाली में दंगे को रोकने के वक्त का जिक्र करते याद दिलाया कि जब वहां दंगा हुआ तो बापू के लिए देश की आजादी का जश्न मनाने से जरूरी नोआखाली के जख्मों पर मरहम लगाना था। जब नोआखाली की सांप्रदायिक ताकतों को बापू के नोआखाली में आने की खबर मिली तो उन्होंने सड़कों पर लाखें और कांच तोड़ कर डालना शुरू किया। ऐसे में बापू ने अपने पैरों की चप्पलें उतार कर चलना शुरू कर दिया। इस पूरे किस्से के बाद आदित्य मुखर्जी ने सवाल उठाया कि देश की राजधानी से तकरीबन 100 किलोमीटर दूर हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पलायन रोकने के लिए क्यों नहीं वहां पर कोई नेता दंगे खत्म न होने तक धरना देकर बैठ गया। क्यों नहीं लोगों ने बेघर किए गए लोगों को बसाने का बीड़ा उठाया। सवाल किसी एक पार्टी से नहीं बल्कि पक्ष औऱ विपक्ष दोनों से है।
दिल्ली में ही यूपी के रहने वाले मेरे कुछ मुस्लिम दोस्तों ने माहौल पर डर जताया। मैंने उन्हें ढांढस बंधाया कि देश में जब तक हमारी तुम्हारी दोस्ती का ऐंटीडोट (Antidote) है सांप्रदायिकता का वायरस कुछ नहीं कर सकता। मेरे दोस्त ने मासूमियत से सवाल किया, ‘अमित भाई हमारे आपके जैसे कितने हैं? मैंने मुस्कुराते हुए कहा, दोस्त मेरे इस 6 फुट और 75 किलो वजनी शरीर के बीमार होने पर उसे चार बूंद का इंजेक्शन दुरुस्त कर देता है। हमारे तुम्हारे जज्बात भी वहीं चार बूंद वाला इंजेक्शन हैं।’
कल शाम शायर, लेखक और अभिनेता पीयूष मिश्रा से भी मिलना हुआ। बातों-बातों में उनसे राजनीति पर चर्चा शुरू हुई। मैंने उनसे पूछा कि आखिर देश में दक्षिणपंथ के बढ़ते प्रसार पर उनका क्या कहना है। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में कहा, ‘ये हैं न साले वामपंथी। इन्होंने ही बेड़ा गर्क किया है।’ मैं थोड़ा चौंका और फिर पूछा कि, ‘आप कलाकार हैं और वाम आंदोलन से जुड़े रहे हैं।’ उन्होंनें पलट कर जवाब दिया, ‘तभी तो बता रहा हूं। ये वामपंथी सबसे पहले इंसान-इंसान में फर्क करना सिखाते हैं। मैंने यहां सबसे पहले सीखा कि ये जो पूजा-पाठ करने वाला हिंदू है, यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। धर्म बुरा है, फलां संगठन बुरा है और पता नहीं क्या-क्या बकवास। मैं कहता हूं कि क्यों बुरा है किसी का धर्म। आरएसएस क्यों बुरा है?’
वह कुछ भावुक होकर बोलते हुए ठिठके, ‘अच्छाई देखने की आंख कब मिलेगी हमें? जहां वाम सरकारें रही हैं वहां कौन सा रामराज्य आ गया है? जब देश का नेतृत्व करने की बारी आती है तो वामपंथ क्यों बगलें झांकने लगता है। वामपंथी विचारधारा वाले नेताओं के बच्चे कहां हैं? वे राजनीति को अछूत क्यों मानते हैं? इसलिए मानते हैं क्योंकि वह विदेशों में पढ़ते हैं और अपने देश में आकर हाथ गंदे नहीं करना चाहते।’ पीयूष ने भले ही अपनी आंखों देखी और भोगी बयां की लेकिन विपक्ष की दशा भी देश की दिशा के लिए उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी सरकारों की नीतियां।
तो दोस्तों आगे की बिसात बिछ चुकी है कई लोगों ने केंद्र सरकार को 2019 के लिए वॉकओवर दे दिया है। हो सकता है ये कयास सही साबित हों, लेकिन अगर मोदी और यूपी में बीजेपी की हार की भविष्यवाणी गलत साबित हो सकती है तो 2019 में बीजेपी के जीत जाने की भविष्यवाणी भी गलत साबित हो सकती है। यूपी के रास्ते ही 2019 में बीजेपी की केंद्र सरकार में वापसी तय करेगी। और यूपी में अगले 5 साल क्या होगा यह वहां के लोग तय करेंगे। ‘योगी’ को ‘कर्मयोगी’ बनाए रखने के लिए विकास का संपुट साधने की जिम्मेदारी यूपी की जनता की है। इतना समझ लीजिए कि कर्मयोग से ही रामराज्य का रास्ता जाता है और इस रास्ते में अयोध्या पड़े या न पड़े इससे फर्क नहीं पड़ता।





सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा उदाहरण है आतंकवाद


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ऐसा लगता है कि वामपंथियों की घड़ी की सूई स्टालिन पर और सेक्युलरों की हिटलर पर आकर अटक गई है। शायद यही वजह है कि जाधवपुर यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राएं नारे लगा रहे हैं कि हिटलर के पिल्लों को एक धक्का और दो। कश्मीर मांगे आजादी। नगालैंड मांगे आजादी। मणिपुर मांगे आजादी। गौमाता के औलादों को एक धक्का और दो।
सेक्युलरों की आंखें आज भी नहीं खुली है। इतने धक्के खाने के बाद भी, आश्चर्य है। दुनिया स्टालिन और हिटलर के युग से बाहर निकल चुकी है। अब लादेन, बगदादी, हाफिज सईद और डॉक्टर जाकिर नाईक का जमाने में नाम है। खतरा इनसे है जमाने को। इनका जमाना कायम न हो जाए, यह कोशिश होनी चाहिए।
विश्व में सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा उदाहरण है विश्व आतंकवाद। आज विश्व आतंकवाद का सबसे बड़ा चेहरा है बगदादी और सबसे संगठित शक्तिशाली संगठन है आईएसआईएस। इस सांप्रदायिकता का पोषण शीत युद्ध के गर्भाशय में हुआ है और पूरी दुनिया को तबाह कर रहा है।
शीतयुद्ध के समय अफगानिस्तान से सोवियत संघ को खदेड़ने के लिए अमेरिका ने अरब के जिस हनफी विचारधारा को बढ़ावा दिया गया था और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तानी फौज की मदद से अलकायदा और लादेन को खड़ा किया गया था, उसी तालिबान ने आईएसआईएस का रूप ले लिया है। ओसामा बिन लादेन, बगदादी, हाफिज सईद आदि आदि उसी के चेहरे हैं।
सोवियत संघ का विघटन हो गया और सोवियत संघ के प्रभाव वाले तमाम मुस्लिम देशों में धार्मिक कट्टरता, उन्माद और सांप्रदायिकता में उभर आई, वही अमेरिका के लिए भस्मासुर साबित हुआ। आज वही सारे जहां में सांप्रदायिक महाशक्ति के रूप में तांडव कर रहा है। इस सांप्रदायिकता के समानांनतर सारे संसार में अन्य सांप्रदायिकता की बयार बह रही है, जिन सांप्रदायिकताओं को फलने-फूलने का मौका नहीं मिला था, इन सांप्रदायिकता की नागफनी देश-दुनिया में लहलहा रही है। उदारता की कलियां कुम्हला रही हैं। उदारवादियों की हार हो रही है। उदारता का सूर्य अस्त हो रहा है और कट्टरता का उदय हो रहा है, उसी का आज दुनिया में सबसे बड़ा चेहरा हैं ट्रंप, अमेरिकी राष्ट्रपति।
अमेरिका में कट्टरता, सांप्रदायिकता और रंगभेद के नफरत का आलम यह है कि अब तक तीन भारतीय हिंदुओं को इसका शिकार होना पड़ा है। अमेरिकी सोच साफ है कि जो गोरा है, वह आतंकी नहीं और जो गोरा नहीं है, वह सब आतंकी हैं क्योंकि उनकी वेशभूषा, रंग-रूप, रहन-सहन एक जैसा है। अमेरिकी धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर भेद करना नहीं जानता। नतीजा, भारतीय हिंदू उसके लगातार शिकार हो रहे हैं। सांप्रदायिकता दुनिया के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। वह दूसरे की वजूद को ही खत्म कर देना चाहता है। वह सह-आस्तित्व में यकीन नहीं रखता। आईएसआईएस, बगदादी और हाफिज सईद जैसे आतंकियों का यही नजरिया है। इनका नजरिया अमेरिकियों के नजरिए से अलग है। वह शिया और सुन्नी में भेद करना जानते हैं। वह मुस्लिम और हिंदू में भेद करना जानते हैं। हनफी और बहाबी विचारधारा वाले आतंकी तो सुन्नियों में भी भेद करना जानते हैं। वह बरेलवी और देवबंदी को अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। वह बहावी के अलावा बाकी सारे यहूदी, ईसाई, शिया, सूफी, हिंदू, सिख, बौद्ध के वजूद को ही मिटा देने पर आमादा हैं। बोको-हराम के कारनामों को देखिए।
यहां से सांप्रदायिकता को देखिए तो नेहरू जमाने के नजरिए से सांप्रदायिकता की लड़ाई नहीं जीती जा सकती, यह जाहिर हो चुका है। नेहरू के जमाने का नजरिया था कि भारत में बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक होती है। गौरतलब है कि उस जमाने में इस्लामिक स्टेट का वजूद नहीं था। लादेन, बगदादी और हाफिज सईद जैसे खतरनाक आतंकियों का उदय नहीं हुआ था। इनके उदय के साथ अब अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता नहीं रही। वह विश्व की सबसे बड़ी सांप्रदायिकता इस्लामिक स्टेट यानी आईएसआईएस से जुड़ चुकी है। इसलिए पुराने नजरिए से नए जमाने की चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता है।
देश में कांग्रेस और कम्युनिस्टों के सेक्युलरवाद की राजनीति का पतन जाने-अनजाने में इसी प्रकार की सांप्रदायिकता में हुई है। जैसे पिछड़े वर्ग की राजनीति का पतन यादववाद में और दलित वर्ग की राजनीति का पतन मोचीवाद में हुआ। इसलिए सांप्रदायिकता की लड़ाई लड़नेवाले यह तमाम लोग लगातार हार रहे हैं।
सांप्रदायिकता को सबसे पहले अब एक नए नजरिए से देखने और समझने की जरूरत है। एक नई रणनीति से सांप्रदायिकता के पराजय की पटकथा लिखनी होगी। लोकतंत्र को बचाने और सह-अस्तित्व और सद्भाव के भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए एक नए सिरे से सोचने की जरूरत है ताकि लोकतंत्र बचे, लोग बचें, देश बचे, दुनिया बचे, मानवता बचे।

अब तुम भी ब्राह्मण हो


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‘आ जाओ, आ जाओ अब तुम भी ब्राह्मण हो’ नवविवाहिता पर मंत्रोच्चार के साथ अक्षत और फूल छिड़कने के बाद उसका घर में स्वागत करते हुए पुरोहित ने कहा। पुरोहित के ठीक पीछे खड़े सास-ससुर के चेहरे पर भी संतोष और खुशी के भाव थे। मगर ‘नवविवाहिता’ गुस्से से उबल गई थी। ‘मैंने उसी समय पलट कर इंद्रेश (पति) से कहा कि यह क्या है? मैं इसी वक्त डिवोर्स फाइल करूंगी।’ सात साल पुरानी इस घटना को बयान करते हुए भी रजनी का चेहरा तमतमा गया था। ‘मगर इतना गुस्सा क्यों?’ वह बोली, ‘यार इंद्रेश एक इंसान और दोस्त के रूप में मुझे शुरू से पसंद था, पर मैं ब्राह्मण नहीं हूं इसीलिए उससे शादी की नहीं सोच रही थी। उसके जोर देने पर मैं तैयार भी हुई तो शर्त यही थी कि जो मैं हूं, उसी रूप में मुझे स्वीकार करो। इंद्रेश के घर वाले इस बात के लिए तैयार नहीं थे। बेटे की जिद के सामने आखिर झुकना पड़ा तो शादी के दूसरे ही दिन मुझे ‘ब्राह्मण’ बनाने की कवायद…! मेरा खून खौल उठा। भई आप जो हैं वह रहो पर मैं जो हूं वह मुझे रहने दो। ऐसी बैकडोर एंट्री मुझे नहीं चाहिए।’
नागपुर की इस युवा पत्रकार मित्र से करीब डेढ़ दशक पहले यह बातचीत संघ नेतृत्व के सोचने-समझने के ढंग को लेकर चल रही थी। उसका कहना था कि यह वैसा ही है, जैसा सवर्ण हिंदुओं का आम तौर पर होता है। इसी क्रम में उसने अपना यह निजी अनुभव सुनाया और निष्कर्ष दिया, ‘जो भी खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने वाले लोग हैं, वह सब ऐसे ही सोचते हैं। जब उनके भीतर महानता हिलोरे मारने लगती है तो वह दया और करुणा से भर उठते हैं। ऐसी ही स्थिति में कभी सामने वाले को अपने जैसा बताने की कृपा भी कर देते हैं पर भीतर से उसको कभी अपने जैसा मानते नहीं।’ रजनी के निष्कर्ष को स्वीकार करने में तब भी मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई थी। इतने वर्षों में अगर कुछ अंतर आया है तो यही कि अब खुद को श्रेष्ठ मानने वाली प्रवृत्ति पहले से भी ज्यादा हावी होती जा रही है। पहले यह दूसरों को हीन भर मान कर छोड़ देती थी, अब उन्हें अपने जैसा बनाने या फिर मिटा देने पर आमादा दिखने लगी है।

मोदी और इंदिरा की तुलना बेमानी


आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की जा रही है। एक तबका कह रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी का व्यक्तित्व, उनकी कार्यशैली और उन्हें मिल रहा जनसमर्थन इंदिरा गांधी की याद दिलाता है। उसके मुताबिक 1970 और 1980 के शुरुआती वर्षों में इंदिरा गांधी का जो कद था वही आज मोदी का है। उन्होंने पूरे देश में एकदलीय वर्चस्व स्थापित कर दिया है। हाल के विधानसभा चुनावों ने इसे और स्पष्ट किया है। यह भी कहा जा रहा है कि आज नरेंद्र मोदी की बीजेपी तब की इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस हो गई है जिसकी केंद्र में ही नहीं कश्मीर से मणिपुर तक सरकारें हैं। उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत बीजेपी के कब्जे में है।

इंदिरा के समय कांग्रेस की जीत का सेहरा अकेले इंदिरा के सिर बांधा जाता था तो आज बीजेपी की जीत मोदी की जीत कही जा रही है क्योंकि वही अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक हैं। मोदी ने इंदिरा की तरह केवल पार्टी पर ही अपनी सर्वोच्चता और एकाधिकार सिद्ध नहीं किया है, सरकार और प्रशासन में भी अद्भुत साहस का परिचय दिया है। यह इंदिरा की छवि से मेल खाता है। तो क्या एक सांस्कृतिक-धार्मिक बहुलता वाले संसदीय लोकतंत्र में ऐसी छवि को बेहतर कहा जा सकता है? क्या दोनों प्रधानमंत्रियों की तुलना की जा सकती है? इसका उत्तर है-बिल्कुल नहीं।

अपनी सोच नदारद
नरेंद्र मोदी बीजेपी के नेता हैं जो संघ की विचारधारा से संचालित है। यह कांग्रेस की विचारधारा से बिल्कुल उलट है। इंदिरा गांधी भी 1975 से 1977 तक कांग्रेस की विचारधारा से अलग हो गई थीं और उन्होंने आपातकाल लगा दिया था। पर इस दौरान और बाद में भी उन्होंने कांग्रेस के सामाजिक समरसता के सिद्धांत को नहीं छोड़ा। इसके विपरीत मोदी की बीजेपी समावेशी प्रवृत्ति से अलग जाकर सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2014 का लोकसभा चुनाव रहा जिसमें पहली बार बीजेपी ने 543 सीटों में से 282 सीटों पर जीत हासिल की लेकिन उसका एक भी मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा नहीं पहुंचा। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी यही हुआ। वहां प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद भी बीजेपी के पास एक मुस्लिम विधायक तक नहीं है। इसके विपरीत इंदिरा की कांग्रेस ने मुसलमानों को राष्ट्रपति के साथ-साथ कई राज्यों का मुख्यमंत्री भी बनाया।
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इस प्रकार यदि कांग्रेस सरकार की सांस्कृतिक और शैक्षिक नीतियां बहुलतावादी, उदारवादी मूल्यों पर आधारित थीं और उनमें विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक विविधता के प्रति आदर का भाव था तो बीजेपी की सरकार हिंदुत्व की विचारधारा लागू करने को ही अपना परम कर्तव्य मानती है। बीजेपी सरकार ने सांस्कृतिक और शैक्षिक संस्थान आरएसएस को दे दिए हैं। उसके स्वयंसेवक इन संस्थानों पर अपना नियंत्रण कर भारतीय समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का हिंदूकरण करने पर तुले हुए हैं। सांस्कृतिक-शैक्षिक संस्थानों पर बीजेपी का इस कदर नियंत्रण है कि वह संघ परिवार के विचारधारात्मक और शैक्षिक अजेंडे से स्वयं को बाहर ही नहीं कर सकते।
भारत में मुसलमान शासन या मुस्लिम युग को भारतीय इतिहास के अंधकार युग की संज्ञा दी जा चुकी है। स्कूल हों या विश्वविद्यालय, अध्यापक हों या इतिहास की पुस्तकें, सभी भारतीय इतिहास की वैसी ही व्याख्या करने के लिए मजबूर हैं जैसी संघ परिवार चाहता है। संघ परिवार के विचारधारात्मक या शैक्षिक अजेंडे का ढांचा हिंदू-संस्कृति केंद्रित है और वह हिंदू गौरव गाथा को ही भारतीय संस्कृति की संपूर्ण व्याख्या मानता है। फिर हिंदू संस्कृति के प्रति बीजेपी और संघ की सोच का केंद्रबिंदु ब्राह्मणवाद है जो वैदिक मूल्यों को अपना अभीष्ट मानता है। एक संघ प्रचारक नरेंद्र मोदी की तुलना में इंदिरा गांधी ने विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दिया।
चाहे एक दल के वर्चस्व की बात हो या पार्टी के ऊपर प्रभावशाली नियंत्रण की, नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी में कोई मेल नहीं है। इंदिरा का पार्टी और सरकार पर पुख्ता नियंत्रण राष्ट्र-राज्य को मजबूती देने वाला था जबकि मोदी का नियंत्रण राष्ट्र-राज्य की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को कमजोर कर हिंदू राष्ट्र को मजबूत करने वाला है। मोदी की तरह इंदिरा संघ परिवार जैसे किसी आक्रामक संगठन के क्षत्रप या नायक के रूप में शासन नहीं कर रही थीं। इसीलिए उसके अजेंडे को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता उनके समक्ष नहीं थी। यह बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि संघ परिवार और बीजेपी की अवधारणा भारत के संघीय ढांचे की मूल संरचना के विरुद्ध है। इंदिरा संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी, समावेशी संस्कृति जैसे सामाजिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थीं जबकि संघ, बीजेपी और मोदी भारत के एकछत्र हिंदूराष्ट्रवादी विचार के पोषक हैं।
विपक्ष का महत्व 
क्या धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सांप्रदायिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कोई मिलन बिंदु है? इंदिरा और मोदी अलग-अलग परंपराओं से संबंधित हैं और राज्यसत्ता का अपने अलग-अलग अजेंडे के लिए उपयोग करते रहे हैं। सिर्फ इमरजेंसी की घटना को छोड़ दिया जाए तो इंदिरा युग भारतीय राजनीति में विविधताओं को साथ लेकर चलता रहा। उसने तमाम असहमतियों और विरोधों का सम्मान किया। उसकी समझ भारतीय समाज की विविधताओं को समझते हुए विकसित हुई।
बहुदलीय व्यवस्था इंदिरा गांधी की राजनीति का केंद्रीय तत्व थी। इसके विपरीत मोदी सरकार ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया है। यह विपक्ष को नष्ट करने या उसे पूरी तरह महत्त्वहीन बना देने वाली सोच है। मोदी के आने के बाद केंद्र में विपक्ष की भूमिका कमजोर भी हुई है। तुलना का आधार कुछ साझे मूल्य ही रखे जा सकते हैं, पर यहां तो दोनों की तुलना का कोई आधार ही नहीं है।
दोनों प्रधानमंत्रियों के विचार और व्यक्तित्व में थोड़ी भी समानता नहीं है।