ऐसा लगता है कि वामपंथियों की घड़ी की सूई स्टालिन पर और सेक्युलरों की हिटलर पर आकर अटक गई है। शायद यही वजह है कि जाधवपुर यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राएं नारे लगा रहे हैं कि हिटलर के पिल्लों को एक धक्का और दो। कश्मीर मांगे आजादी। नगालैंड मांगे आजादी। मणिपुर मांगे आजादी। गौमाता के औलादों को एक धक्का और दो।
सेक्युलरों की आंखें आज भी नहीं खुली है। इतने धक्के खाने के बाद भी, आश्चर्य है। दुनिया स्टालिन और हिटलर के युग से बाहर निकल चुकी है। अब लादेन, बगदादी, हाफिज सईद और डॉक्टर जाकिर नाईक का जमाने में नाम है। खतरा इनसे है जमाने को। इनका जमाना कायम न हो जाए, यह कोशिश होनी चाहिए।
विश्व में सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा उदाहरण है विश्व आतंकवाद। आज विश्व आतंकवाद का सबसे बड़ा चेहरा है बगदादी और सबसे संगठित शक्तिशाली संगठन है आईएसआईएस। इस सांप्रदायिकता का पोषण शीत युद्ध के गर्भाशय में हुआ है और पूरी दुनिया को तबाह कर रहा है।
शीतयुद्ध के समय अफगानिस्तान से सोवियत संघ को खदेड़ने के लिए अमेरिका ने अरब के जिस हनफी विचारधारा को बढ़ावा दिया गया था और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और पाकिस्तानी फौज की मदद से अलकायदा और लादेन को खड़ा किया गया था, उसी तालिबान ने आईएसआईएस का रूप ले लिया है। ओसामा बिन लादेन, बगदादी, हाफिज सईद आदि आदि उसी के चेहरे हैं।
सोवियत संघ का विघटन हो गया और सोवियत संघ के प्रभाव वाले तमाम मुस्लिम देशों में धार्मिक कट्टरता, उन्माद और सांप्रदायिकता में उभर आई, वही अमेरिका के लिए भस्मासुर साबित हुआ। आज वही सारे जहां में सांप्रदायिक महाशक्ति के रूप में तांडव कर रहा है। इस सांप्रदायिकता के समानांनतर सारे संसार में अन्य सांप्रदायिकता की बयार बह रही है, जिन सांप्रदायिकताओं को फलने-फूलने का मौका नहीं मिला था, इन सांप्रदायिकता की नागफनी देश-दुनिया में लहलहा रही है। उदारता की कलियां कुम्हला रही हैं। उदारवादियों की हार हो रही है। उदारता का सूर्य अस्त हो रहा है और कट्टरता का उदय हो रहा है, उसी का आज दुनिया में सबसे बड़ा चेहरा हैं ट्रंप, अमेरिकी राष्ट्रपति।
अमेरिका में कट्टरता, सांप्रदायिकता और रंगभेद के नफरत का आलम यह है कि अब तक तीन भारतीय हिंदुओं को इसका शिकार होना पड़ा है। अमेरिकी सोच साफ है कि जो गोरा है, वह आतंकी नहीं और जो गोरा नहीं है, वह सब आतंकी हैं क्योंकि उनकी वेशभूषा, रंग-रूप, रहन-सहन एक जैसा है। अमेरिकी धर्म और सांप्रदायिकता के आधार पर भेद करना नहीं जानता। नतीजा, भारतीय हिंदू उसके लगातार शिकार हो रहे हैं। सांप्रदायिकता दुनिया के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है। वह दूसरे की वजूद को ही खत्म कर देना चाहता है। वह सह-आस्तित्व में यकीन नहीं रखता। आईएसआईएस, बगदादी और हाफिज सईद जैसे आतंकियों का यही नजरिया है। इनका नजरिया अमेरिकियों के नजरिए से अलग है। वह शिया और सुन्नी में भेद करना जानते हैं। वह मुस्लिम और हिंदू में भेद करना जानते हैं। हनफी और बहाबी विचारधारा वाले आतंकी तो सुन्नियों में भी भेद करना जानते हैं। वह बरेलवी और देवबंदी को अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। वह बहावी के अलावा बाकी सारे यहूदी, ईसाई, शिया, सूफी, हिंदू, सिख, बौद्ध के वजूद को ही मिटा देने पर आमादा हैं। बोको-हराम के कारनामों को देखिए।
यहां से सांप्रदायिकता को देखिए तो नेहरू जमाने के नजरिए से सांप्रदायिकता की लड़ाई नहीं जीती जा सकती, यह जाहिर हो चुका है। नेहरू के जमाने का नजरिया था कि भारत में बहुसंख्यकों की सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यकों की सांप्रदायिकता से ज्यादा खतरनाक होती है। गौरतलब है कि उस जमाने में इस्लामिक स्टेट का वजूद नहीं था। लादेन, बगदादी और हाफिज सईद जैसे खतरनाक आतंकियों का उदय नहीं हुआ था। इनके उदय के साथ अब अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता, अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता नहीं रही। वह विश्व की सबसे बड़ी सांप्रदायिकता इस्लामिक स्टेट यानी आईएसआईएस से जुड़ चुकी है। इसलिए पुराने नजरिए से नए जमाने की चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता है।
देश में कांग्रेस और कम्युनिस्टों के सेक्युलरवाद की राजनीति का पतन जाने-अनजाने में इसी प्रकार की सांप्रदायिकता में हुई है। जैसे पिछड़े वर्ग की राजनीति का पतन यादववाद में और दलित वर्ग की राजनीति का पतन मोचीवाद में हुआ। इसलिए सांप्रदायिकता की लड़ाई लड़नेवाले यह तमाम लोग लगातार हार रहे हैं।
सांप्रदायिकता को सबसे पहले अब एक नए नजरिए से देखने और समझने की जरूरत है। एक नई रणनीति से सांप्रदायिकता के पराजय की पटकथा लिखनी होगी। लोकतंत्र को बचाने और सह-अस्तित्व और सद्भाव के भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए एक नए सिरे से सोचने की जरूरत है ताकि लोकतंत्र बचे, लोग बचें, देश बचे, दुनिया बचे, मानवता बचे।