चीन का डर
By- Sangam Mishra
बौद्ध गुरु दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा पर चीन की प्रतिक्रिया में अतिरेक दिखता है। वह इस तरह शोर मचा रहा है जैसे कोई बहुत बड़ी आफत आ गई हो। एक तरफ उसने अपने सरकारी मीडिया के जरिए भारत को कड़ा जवाब देने की बात कही, दूसरी तरफ भारतीय राजदूत को बुलाकर अपना विरोध भी दर्ज कराया। चीन को लगता है कि भारत उसे चिढ़ाने के लिए दलाई लामा का इस्तेमाल कर रहा है लेकिन भारत का स्टैंड इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है। उसने चीन से साफ कह दिया है कि वह हमारे अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप न करे। भारत ने हमेशा से ‘एक चीन’ नीति का सम्मान किया है और चीन से भी इसी तरह की उम्मीद रखता है। दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा का मकसद धार्मिक और आध्यात्मिक है और इसका कोई राजनीतिक मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए।
सबसे बड़ी बात है कि दलाई लामा कोई पहली बार अरुणाचल नहीं जा रहे। उन्होंने पिछली बार नवंबर 2009 में वहां की यात्रा की थी और 1983 से 2009 के बीच छह बार पहले भी वहां जा चुके हैं। आश्चर्य तो यह है कि चीन को दलाई लामा की गतिविधियां संदेहास्पद और खतरनाक लगती हैं लेकिन पाकिस्तान में मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड अजहर मसूद और हाफिज सईद की आतंकी गतिविधियों पर उसे कोई ऐतराज नहीं है। उन पर प्रतिबंध लगाने की यूएन में भारत की कोशिशों को चीन दो बार विफल बना चुका है।
दरअसल चीन तिब्बत को लेकर इतना ज्यादा डरा हुआ है तो इसकी कुछ ठोस वजहें हैं। आर्थिक नजरिए से निकट भविष्य में तिब्बत का महत्व बढ़ने वाला है। पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह से जुड़ी गतिविधियों और नेपाल के साथ व्यापारिक-सामरिक रिश्तों की सफलता का चीन के लिए कोई अर्थ तभी बन पाएगा जब तिब्बत में शांति-सौहार्द सुनिश्चित किया जा सके। उसकी तेल-गैस पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रही है। चेंगडू जैसे बड़े सैनिक अड्डे का दक्षिणी-पश्चिमी एशिया पर प्रभाव भी तिब्बत के जरिए ही सुनिश्चित किया जा सकता है। चीन ल्हासा के दक्षिण-पूर्व में ब्रह्मपुत्र पर झांगमू बांध के बाद चार और बांध बना रहा है। तिब्बती इन बांधों को पसंद नहीं कर रहे। वह इन्हें अपने पर्यावरण की क्षति का एक बड़ा कारण मानते हैं। चीन को लगता है कि तिब्बत के निकटवर्ती इलाकों में दलाई लामा का बढ़ता प्रभाव कहीं उसको अशांत क्षेत्र न बना दे।
सबसे बड़ी बात है कि दलाई लामा कोई पहली बार अरुणाचल नहीं जा रहे। उन्होंने पिछली बार नवंबर 2009 में वहां की यात्रा की थी और 1983 से 2009 के बीच छह बार पहले भी वहां जा चुके हैं। आश्चर्य तो यह है कि चीन को दलाई लामा की गतिविधियां संदेहास्पद और खतरनाक लगती हैं लेकिन पाकिस्तान में मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड अजहर मसूद और हाफिज सईद की आतंकी गतिविधियों पर उसे कोई ऐतराज नहीं है। उन पर प्रतिबंध लगाने की यूएन में भारत की कोशिशों को चीन दो बार विफल बना चुका है।
दरअसल चीन तिब्बत को लेकर इतना ज्यादा डरा हुआ है तो इसकी कुछ ठोस वजहें हैं। आर्थिक नजरिए से निकट भविष्य में तिब्बत का महत्व बढ़ने वाला है। पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह से जुड़ी गतिविधियों और नेपाल के साथ व्यापारिक-सामरिक रिश्तों की सफलता का चीन के लिए कोई अर्थ तभी बन पाएगा जब तिब्बत में शांति-सौहार्द सुनिश्चित किया जा सके। उसकी तेल-गैस पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रही है। चेंगडू जैसे बड़े सैनिक अड्डे का दक्षिणी-पश्चिमी एशिया पर प्रभाव भी तिब्बत के जरिए ही सुनिश्चित किया जा सकता है। चीन ल्हासा के दक्षिण-पूर्व में ब्रह्मपुत्र पर झांगमू बांध के बाद चार और बांध बना रहा है। तिब्बती इन बांधों को पसंद नहीं कर रहे। वह इन्हें अपने पर्यावरण की क्षति का एक बड़ा कारण मानते हैं। चीन को लगता है कि तिब्बत के निकटवर्ती इलाकों में दलाई लामा का बढ़ता प्रभाव कहीं उसको अशांत क्षेत्र न बना दे।
बहरहाल, भारतीय राजनेताओं को अपने बयानों में इस बात का पूरा ध्यान रखना होगा कि दोनों देशों में तनाव बढ़ने न पाए। हमारे व्यापारिक रिश्ते अभी काफी मजबूत हो चुके हैं। भारत के लिए चीन दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और चीन का निवेश भी हमारे यहां लगातार बढ़ रहा है। जाहिर है दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। ऐसे में जिम्मेदार लोगों को ऐसा कुछ भी कहने या करने से बचना चाहिए जिससे दोनों देशों की जनता के हित प्रभावित होते हों।
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