रविवार, 9 अप्रैल 2017

योगी को कर्मयोगी तुम ही बनाओगे




वक्त 90 के दशक के आखिरी साल, जगह जनपद-हरदोई, यूपीः
मैं अपनी दो छोटी बहनों का बड़ा और ‘काबिल’ भाई हुआ करता था। वे मन में उठने वाले हर सवाल को मुझ पर दाग दिया करती थीं और मैं आए न आए, उन्हें जवाब दे दिया करता था। ऐसे ही एक गरम दुपहरी को जब लाइट नहीं थी और हम बच्चे गर्मी में मम्मी के डर से कमरे में दुबके थे, छोटी बहन ने सवाल पूछा, ‘भइया कब ऐसा दिन आएगा जब पूरे दिन लाइट आएगी?’ मैंने अनमनेपन में जवाब दिया 2015 में आ जाएगी। मैंने इतनी दूर की डेडलाइन दी कि मेरी बहन को शायद अब ये डेडलाइन और घटना याद भी न हो, लेकिन यह वाकया मेरे जेहन में एक गोखरू की तरह गड़ा हुआ है। सरकारें आईं और गईं लेकिन बिजली का ये गोखरू नहीं निकला। मैं अब दिल्ली में रहता हूं और मेरी बहन अपने घर पर, लेकिन हरदोई में लाइट का जाना बदस्तूर जारी है।

यह कहानी इसलिए सुनाई क्योंकि भारी बहुमत की बीजेपी सरकार आने से मुझे बरसों पुरानी ये आस पूरी होती नजर आ रही है। इसे पढ़ कर शायद कुछ लोग कहें कि, ‘क्या यार अब भी चिरकुट वाली बात, बिजली-पानी से भी बड़े मसले हैं इतने प्रचंड वाली बहुमत की सरकार के आगे। हां, अगर ऐसा है तो मैं चिरकुट हूं और मुझे सरकार से सिर्फ बिजली और पानी चाहिए। मुझे लगता है कि अब हर यूपीवासी को इस अजेंडे से चिपक जाना चाहिए। जहां तक बात मंदिर बनवाने की है तो इससे न मुसलमानों को फर्क पड़ता है और न हिंदुओं को। हां, बिजली-पानी से जरूर पड़ता है क्योंकि इसके बिना न तो प्रदेश के किसानों के खेत में पानी पहुंचेगा और न शहरों में इंडस्ट्री। बाकी हर इलेक्शन कर्ज माफी का चूरन बांटने का धंधा तो चलता ही रहेगा। यूपी का भला विकास का संपुट साधने में ही है न कि राम और हिंदुत्व का आलाप लेने में। यह प्रदेश की जनता के साथ ही बीजेपी सरकार के लिए भी एक मौका है। मैं गारंटी लेकर कह सकता हूं कि अगर अगले 5 साल के भीतर प्रदेश की जनता को 24 घंटे बिजली मिलने लगी तो अगली बार भी बीजेपी को सरकार में आने से कोई नहीं रोक पाएगा।
अब आता हूं सांप्रदायिकता और उसके भूत पर। इसके लिए मैं कल की कुछ मुलाकातों को दृष्टांत बना रहा हूं। कल एक विचार गोष्ठी में जाना हुआ जहां वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा ने सांप्रदायिकता से निपटने का एक बेहतरीन नुस्खा सुझाया। उन्होंने कहा कि सबसे पहला काम कि तो हिंदू धर्म को कोसना और उसमें कमियां निकालना बंद करना होगा, दूसरा अल्पसंख्यकों को याचक की मुद्रा से बाहर आकर बिना डरे मुख्यधारा में आकर संघर्ष करना होगा। ये चुनौती मुश्किल है, लेकिन मेरे हिसाब से भी सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ने का सबसे आसान और मुकम्मल तरीका यही है। इसी गोष्ठी में बोलते हुए इतिहासकार आदित्य मुखर्जी का सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई को खोखली लड़ाई कहना भी काफी हद तक सही लगा।
उन्होंने आजादी के बाद बापू के नोआखाली में दंगे को रोकने के वक्त का जिक्र करते याद दिलाया कि जब वहां दंगा हुआ तो बापू के लिए देश की आजादी का जश्न मनाने से जरूरी नोआखाली के जख्मों पर मरहम लगाना था। जब नोआखाली की सांप्रदायिक ताकतों को बापू के नोआखाली में आने की खबर मिली तो उन्होंने सड़कों पर लाखें और कांच तोड़ कर डालना शुरू किया। ऐसे में बापू ने अपने पैरों की चप्पलें उतार कर चलना शुरू कर दिया। इस पूरे किस्से के बाद आदित्य मुखर्जी ने सवाल उठाया कि देश की राजधानी से तकरीबन 100 किलोमीटर दूर हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पलायन रोकने के लिए क्यों नहीं वहां पर कोई नेता दंगे खत्म न होने तक धरना देकर बैठ गया। क्यों नहीं लोगों ने बेघर किए गए लोगों को बसाने का बीड़ा उठाया। सवाल किसी एक पार्टी से नहीं बल्कि पक्ष औऱ विपक्ष दोनों से है।
दिल्ली में ही यूपी के रहने वाले मेरे कुछ मुस्लिम दोस्तों ने माहौल पर डर जताया। मैंने उन्हें ढांढस बंधाया कि देश में जब तक हमारी तुम्हारी दोस्ती का ऐंटीडोट (Antidote) है सांप्रदायिकता का वायरस कुछ नहीं कर सकता। मेरे दोस्त ने मासूमियत से सवाल किया, ‘अमित भाई हमारे आपके जैसे कितने हैं? मैंने मुस्कुराते हुए कहा, दोस्त मेरे इस 6 फुट और 75 किलो वजनी शरीर के बीमार होने पर उसे चार बूंद का इंजेक्शन दुरुस्त कर देता है। हमारे तुम्हारे जज्बात भी वहीं चार बूंद वाला इंजेक्शन हैं।’
कल शाम शायर, लेखक और अभिनेता पीयूष मिश्रा से भी मिलना हुआ। बातों-बातों में उनसे राजनीति पर चर्चा शुरू हुई। मैंने उनसे पूछा कि आखिर देश में दक्षिणपंथ के बढ़ते प्रसार पर उनका क्या कहना है। उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में कहा, ‘ये हैं न साले वामपंथी। इन्होंने ही बेड़ा गर्क किया है।’ मैं थोड़ा चौंका और फिर पूछा कि, ‘आप कलाकार हैं और वाम आंदोलन से जुड़े रहे हैं।’ उन्होंनें पलट कर जवाब दिया, ‘तभी तो बता रहा हूं। ये वामपंथी सबसे पहले इंसान-इंसान में फर्क करना सिखाते हैं। मैंने यहां सबसे पहले सीखा कि ये जो पूजा-पाठ करने वाला हिंदू है, यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। धर्म बुरा है, फलां संगठन बुरा है और पता नहीं क्या-क्या बकवास। मैं कहता हूं कि क्यों बुरा है किसी का धर्म। आरएसएस क्यों बुरा है?’
वह कुछ भावुक होकर बोलते हुए ठिठके, ‘अच्छाई देखने की आंख कब मिलेगी हमें? जहां वाम सरकारें रही हैं वहां कौन सा रामराज्य आ गया है? जब देश का नेतृत्व करने की बारी आती है तो वामपंथ क्यों बगलें झांकने लगता है। वामपंथी विचारधारा वाले नेताओं के बच्चे कहां हैं? वे राजनीति को अछूत क्यों मानते हैं? इसलिए मानते हैं क्योंकि वह विदेशों में पढ़ते हैं और अपने देश में आकर हाथ गंदे नहीं करना चाहते।’ पीयूष ने भले ही अपनी आंखों देखी और भोगी बयां की लेकिन विपक्ष की दशा भी देश की दिशा के लिए उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी सरकारों की नीतियां।
तो दोस्तों आगे की बिसात बिछ चुकी है कई लोगों ने केंद्र सरकार को 2019 के लिए वॉकओवर दे दिया है। हो सकता है ये कयास सही साबित हों, लेकिन अगर मोदी और यूपी में बीजेपी की हार की भविष्यवाणी गलत साबित हो सकती है तो 2019 में बीजेपी के जीत जाने की भविष्यवाणी भी गलत साबित हो सकती है। यूपी के रास्ते ही 2019 में बीजेपी की केंद्र सरकार में वापसी तय करेगी। और यूपी में अगले 5 साल क्या होगा यह वहां के लोग तय करेंगे। ‘योगी’ को ‘कर्मयोगी’ बनाए रखने के लिए विकास का संपुट साधने की जिम्मेदारी यूपी की जनता की है। इतना समझ लीजिए कि कर्मयोग से ही रामराज्य का रास्ता जाता है और इस रास्ते में अयोध्या पड़े या न पड़े इससे फर्क नहीं पड़ता।





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