रविवार, 9 अप्रैल 2017

अब तुम भी ब्राह्मण हो


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‘आ जाओ, आ जाओ अब तुम भी ब्राह्मण हो’ नवविवाहिता पर मंत्रोच्चार के साथ अक्षत और फूल छिड़कने के बाद उसका घर में स्वागत करते हुए पुरोहित ने कहा। पुरोहित के ठीक पीछे खड़े सास-ससुर के चेहरे पर भी संतोष और खुशी के भाव थे। मगर ‘नवविवाहिता’ गुस्से से उबल गई थी। ‘मैंने उसी समय पलट कर इंद्रेश (पति) से कहा कि यह क्या है? मैं इसी वक्त डिवोर्स फाइल करूंगी।’ सात साल पुरानी इस घटना को बयान करते हुए भी रजनी का चेहरा तमतमा गया था। ‘मगर इतना गुस्सा क्यों?’ वह बोली, ‘यार इंद्रेश एक इंसान और दोस्त के रूप में मुझे शुरू से पसंद था, पर मैं ब्राह्मण नहीं हूं इसीलिए उससे शादी की नहीं सोच रही थी। उसके जोर देने पर मैं तैयार भी हुई तो शर्त यही थी कि जो मैं हूं, उसी रूप में मुझे स्वीकार करो। इंद्रेश के घर वाले इस बात के लिए तैयार नहीं थे। बेटे की जिद के सामने आखिर झुकना पड़ा तो शादी के दूसरे ही दिन मुझे ‘ब्राह्मण’ बनाने की कवायद…! मेरा खून खौल उठा। भई आप जो हैं वह रहो पर मैं जो हूं वह मुझे रहने दो। ऐसी बैकडोर एंट्री मुझे नहीं चाहिए।’
नागपुर की इस युवा पत्रकार मित्र से करीब डेढ़ दशक पहले यह बातचीत संघ नेतृत्व के सोचने-समझने के ढंग को लेकर चल रही थी। उसका कहना था कि यह वैसा ही है, जैसा सवर्ण हिंदुओं का आम तौर पर होता है। इसी क्रम में उसने अपना यह निजी अनुभव सुनाया और निष्कर्ष दिया, ‘जो भी खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने वाले लोग हैं, वह सब ऐसे ही सोचते हैं। जब उनके भीतर महानता हिलोरे मारने लगती है तो वह दया और करुणा से भर उठते हैं। ऐसी ही स्थिति में कभी सामने वाले को अपने जैसा बताने की कृपा भी कर देते हैं पर भीतर से उसको कभी अपने जैसा मानते नहीं।’ रजनी के निष्कर्ष को स्वीकार करने में तब भी मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई थी। इतने वर्षों में अगर कुछ अंतर आया है तो यही कि अब खुद को श्रेष्ठ मानने वाली प्रवृत्ति पहले से भी ज्यादा हावी होती जा रही है। पहले यह दूसरों को हीन भर मान कर छोड़ देती थी, अब उन्हें अपने जैसा बनाने या फिर मिटा देने पर आमादा दिखने लगी है।

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