मोदी और इंदिरा की तुलना बेमानी
आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की जा रही है। एक तबका कह रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी का व्यक्तित्व, उनकी कार्यशैली और उन्हें मिल रहा जनसमर्थन इंदिरा गांधी की याद दिलाता है। उसके मुताबिक 1970 और 1980 के शुरुआती वर्षों में इंदिरा गांधी का जो कद था वही आज मोदी का है। उन्होंने पूरे देश में एकदलीय वर्चस्व स्थापित कर दिया है। हाल के विधानसभा चुनावों ने इसे और स्पष्ट किया है। यह भी कहा जा रहा है कि आज नरेंद्र मोदी की बीजेपी तब की इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस हो गई है जिसकी केंद्र में ही नहीं कश्मीर से मणिपुर तक सरकारें हैं। उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत बीजेपी के कब्जे में है।
इंदिरा के समय कांग्रेस की जीत का सेहरा अकेले इंदिरा के सिर बांधा जाता था तो आज बीजेपी की जीत मोदी की जीत कही जा रही है क्योंकि वही अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक हैं। मोदी ने इंदिरा की तरह केवल पार्टी पर ही अपनी सर्वोच्चता और एकाधिकार सिद्ध नहीं किया है, सरकार और प्रशासन में भी अद्भुत साहस का परिचय दिया है। यह इंदिरा की छवि से मेल खाता है। तो क्या एक सांस्कृतिक-धार्मिक बहुलता वाले संसदीय लोकतंत्र में ऐसी छवि को बेहतर कहा जा सकता है? क्या दोनों प्रधानमंत्रियों की तुलना की जा सकती है? इसका उत्तर है-बिल्कुल नहीं।
अपनी सोच नदारद
नरेंद्र मोदी बीजेपी के नेता हैं जो संघ की विचारधारा से संचालित है। यह कांग्रेस की विचारधारा से बिल्कुल उलट है। इंदिरा गांधी भी 1975 से 1977 तक कांग्रेस की विचारधारा से अलग हो गई थीं और उन्होंने आपातकाल लगा दिया था। पर इस दौरान और बाद में भी उन्होंने कांग्रेस के सामाजिक समरसता के सिद्धांत को नहीं छोड़ा। इसके विपरीत मोदी की बीजेपी समावेशी प्रवृत्ति से अलग जाकर सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2014 का लोकसभा चुनाव रहा जिसमें पहली बार बीजेपी ने 543 सीटों में से 282 सीटों पर जीत हासिल की लेकिन उसका एक भी मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा नहीं पहुंचा। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी यही हुआ। वहां प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद भी बीजेपी के पास एक मुस्लिम विधायक तक नहीं है। इसके विपरीत इंदिरा की कांग्रेस ने मुसलमानों को राष्ट्रपति के साथ-साथ कई राज्यों का मुख्यमंत्री भी बनाया।
नरेंद्र मोदी बीजेपी के नेता हैं जो संघ की विचारधारा से संचालित है। यह कांग्रेस की विचारधारा से बिल्कुल उलट है। इंदिरा गांधी भी 1975 से 1977 तक कांग्रेस की विचारधारा से अलग हो गई थीं और उन्होंने आपातकाल लगा दिया था। पर इस दौरान और बाद में भी उन्होंने कांग्रेस के सामाजिक समरसता के सिद्धांत को नहीं छोड़ा। इसके विपरीत मोदी की बीजेपी समावेशी प्रवृत्ति से अलग जाकर सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देती रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2014 का लोकसभा चुनाव रहा जिसमें पहली बार बीजेपी ने 543 सीटों में से 282 सीटों पर जीत हासिल की लेकिन उसका एक भी मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा नहीं पहुंचा। 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव में भी यही हुआ। वहां प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद भी बीजेपी के पास एक मुस्लिम विधायक तक नहीं है। इसके विपरीत इंदिरा की कांग्रेस ने मुसलमानों को राष्ट्रपति के साथ-साथ कई राज्यों का मुख्यमंत्री भी बनाया।
इस प्रकार यदि कांग्रेस सरकार की सांस्कृतिक और शैक्षिक नीतियां बहुलतावादी, उदारवादी मूल्यों पर आधारित थीं और उनमें विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक विविधता के प्रति आदर का भाव था तो बीजेपी की सरकार हिंदुत्व की विचारधारा लागू करने को ही अपना परम कर्तव्य मानती है। बीजेपी सरकार ने सांस्कृतिक और शैक्षिक संस्थान आरएसएस को दे दिए हैं। उसके स्वयंसेवक इन संस्थानों पर अपना नियंत्रण कर भारतीय समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का हिंदूकरण करने पर तुले हुए हैं। सांस्कृतिक-शैक्षिक संस्थानों पर बीजेपी का इस कदर नियंत्रण है कि वह संघ परिवार के विचारधारात्मक और शैक्षिक अजेंडे से स्वयं को बाहर ही नहीं कर सकते।
भारत में मुसलमान शासन या मुस्लिम युग को भारतीय इतिहास के अंधकार युग की संज्ञा दी जा चुकी है। स्कूल हों या विश्वविद्यालय, अध्यापक हों या इतिहास की पुस्तकें, सभी भारतीय इतिहास की वैसी ही व्याख्या करने के लिए मजबूर हैं जैसी संघ परिवार चाहता है। संघ परिवार के विचारधारात्मक या शैक्षिक अजेंडे का ढांचा हिंदू-संस्कृति केंद्रित है और वह हिंदू गौरव गाथा को ही भारतीय संस्कृति की संपूर्ण व्याख्या मानता है। फिर हिंदू संस्कृति के प्रति बीजेपी और संघ की सोच का केंद्रबिंदु ब्राह्मणवाद है जो वैदिक मूल्यों को अपना अभीष्ट मानता है। एक संघ प्रचारक नरेंद्र मोदी की तुलना में इंदिरा गांधी ने विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दिया।
चाहे एक दल के वर्चस्व की बात हो या पार्टी के ऊपर प्रभावशाली नियंत्रण की, नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी में कोई मेल नहीं है। इंदिरा का पार्टी और सरकार पर पुख्ता नियंत्रण राष्ट्र-राज्य को मजबूती देने वाला था जबकि मोदी का नियंत्रण राष्ट्र-राज्य की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को कमजोर कर हिंदू राष्ट्र को मजबूत करने वाला है। मोदी की तरह इंदिरा संघ परिवार जैसे किसी आक्रामक संगठन के क्षत्रप या नायक के रूप में शासन नहीं कर रही थीं। इसीलिए उसके अजेंडे को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता उनके समक्ष नहीं थी। यह बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि संघ परिवार और बीजेपी की अवधारणा भारत के संघीय ढांचे की मूल संरचना के विरुद्ध है। इंदिरा संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी, समावेशी संस्कृति जैसे सामाजिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थीं जबकि संघ, बीजेपी और मोदी भारत के एकछत्र हिंदूराष्ट्रवादी विचार के पोषक हैं।
विपक्ष का महत्व
क्या धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सांप्रदायिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कोई मिलन बिंदु है? इंदिरा और मोदी अलग-अलग परंपराओं से संबंधित हैं और राज्यसत्ता का अपने अलग-अलग अजेंडे के लिए उपयोग करते रहे हैं। सिर्फ इमरजेंसी की घटना को छोड़ दिया जाए तो इंदिरा युग भारतीय राजनीति में विविधताओं को साथ लेकर चलता रहा। उसने तमाम असहमतियों और विरोधों का सम्मान किया। उसकी समझ भारतीय समाज की विविधताओं को समझते हुए विकसित हुई।
क्या धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सांप्रदायिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कोई मिलन बिंदु है? इंदिरा और मोदी अलग-अलग परंपराओं से संबंधित हैं और राज्यसत्ता का अपने अलग-अलग अजेंडे के लिए उपयोग करते रहे हैं। सिर्फ इमरजेंसी की घटना को छोड़ दिया जाए तो इंदिरा युग भारतीय राजनीति में विविधताओं को साथ लेकर चलता रहा। उसने तमाम असहमतियों और विरोधों का सम्मान किया। उसकी समझ भारतीय समाज की विविधताओं को समझते हुए विकसित हुई।
बहुदलीय व्यवस्था इंदिरा गांधी की राजनीति का केंद्रीय तत्व थी। इसके विपरीत मोदी सरकार ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया है। यह विपक्ष को नष्ट करने या उसे पूरी तरह महत्त्वहीन बना देने वाली सोच है। मोदी के आने के बाद केंद्र में विपक्ष की भूमिका कमजोर भी हुई है। तुलना का आधार कुछ साझे मूल्य ही रखे जा सकते हैं, पर यहां तो दोनों की तुलना का कोई आधार ही नहीं है।
दोनों प्रधानमंत्रियों के विचार और व्यक्तित्व में थोड़ी भी समानता नहीं है।
दोनों प्रधानमंत्रियों के विचार और व्यक्तित्व में थोड़ी भी समानता नहीं है।
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